Saturday 29 April 2017

साईकथा सुनते ही - जीवोंका तत्काल दुर्दिन हर जाए !

                                                         ॐ कृपासिंधु श्रीसाईनाथाय़ नम: ।

हेमाडपंतजी श्रीसाईनाथ की कथाओंका , उनकी लीलाओं का बखान करते बिलकुल नहीं थकतें हैं। वो बार बार हम श्रोताओं को समझाते हैं कि मेरे साईबाबा की सिर्फ कथाएं भी सुन लो तो आप के कर्म पाश भी टूट जातें हैं सिर्फ मेरे साईबाबा की अगाध कृपादृष्टी से  और  साथ में आप की बुध्दी को मेरे साईबाबा की करूणा मयी  दृष्टी से बुध्दी भी सुप्रकाशित हो उठती है ,और तो और श्रवण करनेवाला सभी सुख निर्विशेष रूप से पाता है।                                                                                                                                                                                                            

श्रवणार्थियों का कर्मपाश। तोड़ देती हैं ये कथाएँ विशेष।
बुद्धि को देती सुप्रकाश। निर्विशेष सुख सकल॥

जब मैं यह पढती थी तो इस साईबाबा के कथा श्रवण का इतना गहरा महत्त्व समझ में नहीं आया था अब तक । पर जब मैंने इस ओवी के अर्थ के बारे में एक
मेडीया पर एक लेख पढा तो सोच में डूब गयी । 
http://www.newscast-pratyaksha.com/hindi/shree-sai-satcharitra-adhyay2-part16/
इस लेख में लेखक महोदयजी बता रहें हैं कि 

 श्रीसाईसच्चरित की कथाएँ भाविक श्रोताओं के कर्मपाश तोड़ देती हैं, प्रारब्ध का नाश कर देती हैं। इन कर्मपाशों को यानी कर्मबंधों को ये कथाएँ ‘अशेष’ रूप से तोड देती हैं अर्थात् एक भी पाश को बाकी नहीं बचने देती हैं।
यह पढतें ही याद आयी ३४ वे अध्याय में पढी हुई नाशिक जिले के मालेगांव नामक एक ग्राम में रहनेवाले एक डॉक्टर की कथा ।  उसके नन्हे से  भतीजे को हाड्याव्रण नामक बहुत ही दुर्धर ( जल्दी न ठीक होनेवाली ) बीमारी ने जकड लिया था ।  वो स्वंय एक डॉक्टर था और उसका दोस्त भी डॉक्टर था , किंतु वो उस बीमारी की दवा दे नहीं पाया । देश विदेश के सारे उपचार करवाएं , सारे देव देवताओं के , कुलस्वामी के हाथ पैर जोडने पर भी कुछ रास्ता नहीं मिला और फिर किसी ने शिरडी के साईबाबा के बारे में बताया और उस अवलिया के पास उस भतीजे को लेकर उसके मां -बाप गए और फिर उस नन्हे लडके की बीमारी को  साईबाबा ने सिर्फ पैर के उपर से अपना हाथ फेरकर बिना किसी दवा के अपने बचनों से ठीक किया था । बाद में उस हाड्याव्रण की जख्म पर बाबा ने दी हुई उदी से ही सब कुछ ठीक हुआ था । अब साईबाबा की इस लीला को उस डॉक्टर  ने सुना था मालेगाव में और साईबाबा को मिलने जाने का तय भी किया था । किंतु बाद में उस डॉक्टर के मन में किसी ने साईबाबा के बारे में कुछ (गलत बात ) बताकर विकल्प डाल दिया था । तो वो डॉक्टर ने साईबाबा के दर्शन को जाने का अपना बिचार छोड दिया और आगे मुंबई चला गया ।  पर देखिए साईबाबा की कथा सुनी है तो साईबाबा ने खुद ही उस डॉक्टर के प्रारब्ध वश उसे साईबाबा को मिलने में जो बाधा पैदा हो गयी या रूकावट आ गयी उसको दूर किया याने उस डॉक्टर के कर्म पाश तोडकर उसे सपने में अशरीर वाणी से अपने पास बुलावा भेजा ।

हेमाडपंतजी और भी एक बात पर गौर फर्मातें हैं कि मेरे साईबाबा की ये कथाएँ बुद्धि को सुप्रकाश देती हैं अर्थात् इनके माध्यम से वह वरेण्य भर्ग ( पापदाहक तेज  )बुद्धि को प्राप्त होता है। और यह पापदाहक तेज बुद्धि के द्वारा मन में प्रवेश करके पापों के बीजों को जला डालता है। वैसे तो परमेश्‍वरी ‘भर्ग’ इस ऐश्‍वर्य को प्राप्त करना इतना आसान नहीं है; परन्तु श्रद्धावानों के लिए साई की कथाओं का सहज सरल मार्ग ही यह भर्ग प्राप्त करवाने वाला होता है। पापबीज और पापों के परिणाम इस प्रकार के पाप-समुच्चय का नाश इस परमेश्‍वरी भर्ग से ही होता है। मालेगाव का वो डॉक्टर साईबाबा की कथा सुनकर भी जान नहीं पा रहा था, साईबाबा की महानता को नहीं स्मझ पा रहा था , साईबाबा के इशारे का अर्थ नहीं समझ पा रहा था  तब साईबाबा ने उसकी बुध्दी को सुप्रकाशित 
 करने के लिए लगातार तीन रात को वोही बाणी उसे सुनाई दी गयी "अभी तक मुझपर अविश्वास है क्या आपका ? " बाद में उसी डॉक्टर के  एक बीमार मरीज को ठीक करवाने का उसका बिचार सत्य में परिवर्तित करके उस डॉक्टर को साईबाबा ने अपने पास खिंचकर बुला लिया । याने साईबाबा ने सिर्फ उनकी कथा सुनने पर डॉक्टर के सारे कर्म पाश तोड दिए थे , एक पाश भी बाकी बचने नहीं दिया था ।           

हेमाडपंत हमें पूरे विश्‍वास के साथ बता रहे हैं कि मेरे साईनाथ की कथाओं का भावपूर्वक श्रवण करने से यह भर्ग - पाप का नाश करनेवाला परमेश्वरी तेज से साईनाथ हमारी झोली आसानी से भर देतें हैं ।  हेमाडपंतजी बदे प्यार से हमें यह भरोसा देतें हैं कि हर एक को निर्विशेष सुख, शाश्‍वत सुख अर्थात आनंद की प्राप्ति करवाने वालीं ऐसी ये कथाएँ हैं। इन कथाओं का यह सहज, सुंदर, आसान मार्ग ही हम जैसे सभी सामान्य मानवों के लिए उचित है। हेमाडपंत ने इन कथाओं की महिमा का अनुभव लेकर उन्हें समझकर ही साईसच्चरित की रचना हम सब श्रध्दावानों के लिए करने का निश्‍चय किया था । 

हेमाडपंत आगे बतातें हैं कि मेरे साईबाबा के नाम के चार अक्षर भी क्या कुछः नहीं कर सकतें ?  

‘कान में पड़ते ही चार अक्षर। तत्काल ही जीवों का दुर्दिन जाये हर।
संपूर्ण कथा सुनते ही सादर। भावार्थी तर जाये भव पार।’


‘साईनाथ’ ये चार अक्षर और कथा के चार अक्षर कानों में पड़ते ही तत्काल जीवों का दुर्दिन टल जाता है। अर्थात इस कथा के चार अक्षर कानों में पड़ते ही प्रारब्धभोग अर्थात कठिन काल दूर हो जाता है, प्रारब्ध का अंधकार दूर हो जाता है।
भीमाजी पाटील ने अपने दोस्त नाना चांदोरकरजी का कहा माना और साईनाथ इस चार अक्षर को अपनी दवा मानकर चले आए शिरडी तो साईबाबा ने भी तत्काल उस बीमार , दुखियारे , जीव का दुर्दिन हर दिया था ।  

उपर बताए गए लेख में लेखक महोदय इस बात को सुस्पष्ट करके दिखलातें हैं कि
दुर्दिन इस शब्द का अर्थ है- दिन के होते हुए भी अंधकारमय स्थिति का हमारे जीवन में होना । इस साईरूपी सूर्य के सामने होते हुए भी हम ही अपने प्रारब्ध के कारण, अपने अहंकार के कारण अपने जीवन में अंधकार उत्पन्न करते हैं। हम मन के सारे दरवाज़े बंद करके, प्रकाश को अपने से दूर कर देते हैं। इस कथा के चार अक्षर कानों में पड़ते ही सारे के सारे दरवाजे अपने आप खुल जाते हैं और प्रकाश के कारण सब कुछ प्रकाशित हो उठता है। फ़िर पूरी कथा सुनने पर अन्य अवरोध भी दूर हो कर साईनाथ के गोकुल में, तेज:लोक में प्रवेश अवश्य ही मिलता है अर्थात भावार्थी भव से पार हो जाता है। सर्वसामान्य जीवात्मा, जो अपना उद्धार चाहते हैं, उनके लिए साईनाथ ने ही भवसागर के पार ले जाने वाले इस मार्ग को हेमाडपंत के माध्यम से प्रकाशित किया है।

मालेगाव के डॉक्टर ने भी इस बात का अनुभव किया और वो विजापूर में प्रमोशन लेकर चले गए ।

१३ वे अध्याय में पढी हुई भीमाजी पाटील की कथा यही  बात को साबित करती है -
जुन्नर के नारायण गाव में  रहनेवाले भीमाजी पाटील - जिन्हें क्षय ( टी. बी. ) की बीमारी ने पूरी तरह जकड लिया था ।  सभी प्रकार के बैद्यजी से दवा हो गयी थी, देवी देवताओं की मन्नत मांग चुके थे , पर कोई भी राह नहीं मिल रही थी और वे अपनी जिंदगी से ऊब गए थे । ऐसे में उन्हें अपने दोस्त नानासाब चांदोरकरजी की याद आती हैं ।  बस्स वो ही पल उनके लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण बन जाता है ।  अर्थात साईबाबा के परम भक्त रहनेवाले नानासाब चांदोरकर उन्हें तुरंत ही शिरडी आकर उनके सदगुरु साईबाबा के दर्शन लेने की सलाह देतें हैं ।  जैसे ही भीमाजी शिरडी में साईबाबा के दर्शन लेतें हैं और साईबाबा की वाणी उनके अपने ही मुख से सुनतें हैं वैसे ही भीमाजी की व्यथा का हटना शुरु हो जाता है ।  हर पांच मिनट में मुंह में आनेवाला खून का नामोनिशान मिट जाता है ।  इतना ही नही वो अपने पैरों पर खुद चलकर जा सकें ।

भीमाजी की कथा हमें दिखलाती हैं कि उनके जीवन में मौत का खोंफ छा गया था , कोई भी इलाज न होने के कारण उनका जीवन अंधकार से घिर गया था और साईबाबा ने उन्हें उनका जीवन लौटाकर जीने की नई उम्मीद से उनका जीवन सुप्रकाशित किया था ।

हम भी श्रीसाईसचरित की साईबाबा की कथाएं पढकर हमारा जीवन सुख , शांती , तृप्ती और समाधान से भर सकतें हैं जरूर १०८ % सही मायनो में !    

Monday 24 April 2017

अनंता तुला रे कसे रे स्मरावे।अनंता तुला रे कसे रे नमावे ।।

अनंता तुला रे कसे रे स्मरावे ।। अनंता तुला रे कसे रे नमावे ।।
अनंत मुखांचा शिणे शेष गाथा । नमस्कार साष्टांग श्रीसाईनाथा ।। १ ।।

खरेतर श्री मोहनीराज पंडित ह्यांनी लिहिलेल्या नमनाष्टकाची ही प्रथम ओवी , जी शिरडीनिवासी सदगुरु श्रीसाईनाथांसाठी आहे. परंतु  सदगुरुतत्त्व हे अनादि, अनंत आणि कायम एकच असते. त्यामुळे सदगुरु साईनाथांसाठी लिहिलेल्या ह्या ओवीतही सदगुरु अक्कलकोटनिवासी श्रीस्वामी समर्थ आजोबांचेच दर्शन घडते आणि स्मरतात त्या बखरीमधील कथा ज्या स्वामींच्या अनंतत्वाची खूण पटवितात. 
                                                                
सामान्य माणूस आपल्या पोटापाण्याची खळगी भरताना , उदरनिर्वाहाच्या मागे सतत धावत पळत असतो आणि ह्याच जीवनाच्या रामरगाड्यात त्याला आपल्यासमोर साक्षात परब्र्म्ह अवतरले आहे ह्याचे देखिल ना  भान राहात , ना जाणीव होत , ना अंतरीची खूण पटत मनाच्या तर्क -कुतर्क, वाद-विवाद, शंका-कुशंका ह्यांच्या गदारोळातून ... आणि म्हणूनच जेव्हा जेव्हा "तो" भगवंत , परमात्मा सगुण साकार बनून मानवी रूपाने ह्या वसुंधरेवर अवतरतो तेव्हा तेव्हा सामान्य मानवाला ते पचनी पडणे खूप कठीण होऊन बसते. "तो" दिसतो माझ्यासारखा .माझ्यासारखा चालतो-बोलतो, खातो-पितो, उठतो-बसतो मग मी "त्या" ला कसे बरे माझा परमात्मा, माझा भगवंत , माझा परमेश्वर म्हणून मी स्विकारू हा गहन प्रश्न मानवाच्या मनाला वारंवार पडतच राहतो आणि संभ्रमात टाकीटाच राहतो. पण "लाभेवीण प्रेम " करणारी ही सदगुरुमाऊली इतुकी करुणानिधान असते की आपल्या लेकरांच्या अनंत चुकांना पदरात घालून , जराही न रागावता "ती" भक्तवत्सल सदगुरुमाय आम्हांला आपल्या चरणांशी ठाव देतेच देते, आणि आपल्या क्षमेच्या , अकारण कारूण्याच्या , अगाध प्रेमाच्या पदरात घेतेच घेते.

अक्कलकोटचे श्री स्वामी समर्थ (प्रकटकाल : इ.स. १८५६-१८७८)

आज २४ एप्रिल २०१७ -  मराठी कॅलेंडर मध्ये आज श्रीअक्कलकोट स्वामी महाराज पुण्यतिथी अशी नोंद आहे. अक्कलकोट निवासी, सद्गुरु दत्त अवतारी श्री स्वामी समर्थ महाराजांच्या १३९ व्या पुण्यतिथी उत्सवाची बातमी वाचली आणि जाणवले ते परम सत्य ! वास्तविक पाहता इसवी सन १८७८ मध्ये स्वामींनी समाधिस्त होऊन आपला सगुण साकार अवतार संपविला असे भासवले, परंतु आजतागायत प्रत्यक्षात स्वामी भक्तांच्या पाठीशी सतत उभे राहून, भक्तांना "हम गया नही जिंदा है " याच आपल्या अभिवचनाची प्रचिती सातत्याने  देत आहेत.

" अनसूयो अत्रिसम्भूतो दत्तात्रेयो दिगंबरा | स्मर्तुगामी स्वभक्तानां उध्दरता भवसंकटात् ||"
शरणागतवत्सल, प्रणतपाळ, भक्तवत्सल असा "तो  परमात्मा " आपल्या भक्ताने स्मरण करताच धावून येतोच , नव्हे नव्हे "तो" स्मरणासवेच प्रकटतो - अशी समर्थांची ख्याती भक्तगण आजही अनुभवीत आहेत आणि म्हणूनच येथे आवर्जून स्मरते  ती संत एकनाथांची अभंग रचना -

"तुज सगुण म्हणू की निर्गुंण रे सगुण निर्गुण तूचि गोविंदु रे"

देहात राहून सगुण साकार स्वरूपाने विचरो वा निर्गुण निराकार बनून अनंतात विचरो सदगुरु हा कायम आपल्या भक्तांजवळच असतो.

"तेज रुपाने आजही जागृत, स्वामी समर्थ महाराज समाधीत | माथा ठेवुनी साद घालिता झणी मिळतो प्रतिसाद, अवलिया स्वामी समर्थ आजोबा , अवलिया स्वामी समर्थ आजोबा "

अक्कलकोटास श्रीस्वामी समर्थ निवास करीत असताना श्रध्दावान दर्शनासाठी येत आणि पुन्हा "सगुण साकार रूपातील " अवतरलेल्या साक्षात परब्र्म्हाला न जाणून "निर्गुण निराकाराला" भेटण्यासाठी धाव घेत. तेव्हा आपल्या लेकरांची ही वणवण पाहून स्वामी समर्थांचे अंत:करण कळवळत असे. "कुठे शोधिसी रामेश्वर अन कुठे शोधिसी काशी , हृदयातील भगवंत राहिला हृदयातून उपाशी " ही आर्तता आपल्या भक्ताला उमगावी म्हणून स्वामीच मदतीला धावून येत असत.

मंगेश पाडगांवकरांनी मानवाची हीच व्यथा अगदी यथार्थपणे आपल्या गीतातून मांडिली आहे.
झाड फुलांनी आले बहरून तू न पाहिले डोळे उघडून
वर्षाकाळी पाउसधारा तुला न दिसला त्यात इशारा
काय तुला उपयोग आंधळ्या दीप असून उशाशी
कुठे शोधिसी रामेश्वर अन कुठे शोधिसी काशी


सदगुरुमाऊली अशीच कल्पवृक्षापेक्षाही  अमूल्य असे तृप्तीचे , समाधानाचे , सौख्याचे वर्षांवरूपी मेघ
वर्षविण्या सदातुर  होऊन  अचिंत्यदान घेऊन आपल्या उशाशीच उभी असते , पण आपण तिला नाकारून दूर दूर तीर्थक्षेत्री वणवण करीत फिरतो, अशा आपल्या वागण्याने किती कष्टवितो आपण आपल्या सदगुरुरुमाऊलीला ?  ह्याची मात्र आपल्याला तमा नसते ना आपल्या खिजगणतीत असते.

अक्कलकोट स्वामी समर्थांच्या बखरीत हीच गोष्ट आपल्याला प्रकर्षाने आढळते ४५ व्या कथेत . श्री गोपाळबुवा केळकर आपल्याला बखरीतील ह्या कथेतून सांगतात ती परशुराम सेवेकर्‍याची गोष्ट ! एक वेळ परशुराम सेवकरी याचे मनात आलें की आपण काशीस जावें. म्हणून ते श्रींची आज्ञा  घेण्याकरितां श्रींजवळ आले व त्यांनी प्रार्थना केली . श्रींनी उत्तर दिलें,: संतचरणांची माती तीच माझी भागीरथी." हे ऐकून परशुराम ह्यानें काशीस जाण्याचा बेत रहित केला.

परंतु ह्याच कथेत केळकर बुवा म्हणतात की प्रत्यक्ष निधान चोळाप्पाचे घरीं असून चोळाप्पाची तीर्थयात्रा किंवा पिराची शेरणी वाटणें चुकलें नव्हतें . चोळाप्पाची कुलदेवता तुळजापूरची देवी असून , एक वेळ चोळाप्पा कुटूंबासह यात्रेस निघाला. बाळाप्पास आपल्या बरोबर येण्यास त्यानें आग्रह केला. बाळाप्पा हा स्वामींचा नि:स्सीम भक्त असल्या कारणाने श्रींच्या आज्ञेवाचून तो कोणतीही गोष्ट करीत नसे. त्याने चोळाप्पास स्वामींची आज्ञा  घ्यावी म्हणजे आपण येण्यास तयार आहों असे सांगितले. चोळाप्पा बाळाप्पाचा हात धरून स्वामी आजोबांकडे गेला व तुळजापूरास जाण्याविषयीं आ  मागितली. स्वामी म्हणाले," डोंगरावर चढून उकिरडे उकरण्यास जा ." हे ऐकून श्रींची सेवा सोडून तुळजापूरांस जाण्यांत कांहीच अर्थ नाही , असे समजून बाळाप्पा गेला नाही. चोळाप्पा मात्र गेला.
येथे केळकर बुवा म्हणतात कर्म , उपासना ,  न-क्र्माक्र्मानें साधन साधकानें करावें उगीचच ढोंग करून पोट भरणें महाराजांस आवडत नसे.
काय तुला उपयोग आंधळ्या दीप असून उशाशी
कुठे शोधिसी रामेश्वर अन कुठे शोधिसी काशी


आपणही असेच सदगुरुच्या दारी शरण जातो आणि "तो "आपल्या कानी कपाळी ओरडून सांगत असताना "त्या" एकाचे ठायी अनन्य शरणागत होण्याचे सोडून निर्गुण निराकार परमेश्वराला शोधण्याचा अट्टाहास करून ऊर फुटेस्तोवर धावाधाव करतो कधी ह्या देवाच्या दारी तर कधी त्या देवाच्या दारी ! येथे आठवल्या त्या एका अभंगाच्या ओवी " बापूपायी ठेवू एकविध भाव नको धावाधाव अन्य कोठे "! किती सत्य वर्णिले आहे माझ्यासाठी माझा सदगुरुच माझी माय आणि माझा बाप आहे , तर मी कशाला अन्य दारी जाण्याची आटाटी करू ?

केळकर बुवा बखरीमधील ४४व्या कथेत मुंगी -पैठणच्या विठाबाईची गोष्ट सांगताना हेच तत्व प्रतिपादन करतात. ह्या विठाबाई मुंगीपैठणच्या राहणार्‍या अक्कलकोतास श्रींच्या दर्शनास येतात . पंढरपूरास आषाढी एकादशीस जाण्याचा त्यांचा बेत असतो व त्या आपला बेत स्वामींचे सेवेकरी गणपतराव व बाळाप्पा ह्यांना सांगतात , तेव्हा ते दोघेही श्रीसमर्थांची स्वारी राजवाड्यांत असून दर्शन मिळत नसल्याने, बाहेर कंटाळवाणे दिवस काढण्यापेक्षा पंढरीस जावें असा विचार करून जाण्यास तयार होतात. पुढें विठाबाई स्वामींच्या दर्शनास जातात तेव्हा स्वामी विठाबाईच्या तोंडाकडे पाहून म्हणतात ," काय ग , विठोबाचा लंड धरण्यास अजून गेली नाहीस?" तेव्हा बाईस आपली चूक उमगते व ती उघडपणें स्वामींपुढे तशी कबूली देते ," आपण चालतें-बोलतें विठोबा असून मी पंढरीस कशास जाऊं?"  नंतर विठाबाई बाळाप्पा व गणपतराव सेवेकर्‍यांस झालेली हकिगत सांगून पंढरपूरास जाण्याचा बेत रहीत करते.

१६८वी कथा सांगते की एका मराठी साधूस मंगळवेढ्यास स्वामी समर्थांनी दर्शन देऊन सांगितले ,"द्वारकेस जाऊन पैशाच्या आकृतीच्या खापरकुट्या कर, म्हणजे  तुला विठोबा भेटेल ! त्या प्रमाणें तो द्वारकेस जाऊन तसें करू लागल्यावर त्याला भगवंताने तीन वेळ प्रत्यक्ष विठोबाच्या रूपानें दर्शन दिलें

१६९ व्या कथेंतून अलवणीबुवांना जगन्नाथाला स्वामींनी कटीवर हात ठेवून सांगितलेले सत्य वचन की " सर्व स्थानें आमचीच आहेत ! " ह्याच गोष्टीची प्रचिती देतात की सदगुरुंच्या चरणांशीच सर्व तीर्थक्षेत्रे वास करतात. म्हणूनच आधी जराही प्रसिध्दी नसलेले अक्कलकोट श्रीस्वामी समर्थांच्या पदस्पर्शाने पुनीत झाले, पावन झाले आणि मग तेथे यात्रा अहोरात्र वाहू लागली.

तीच गोष्ट शिरडी निवासी साईनाथांची - श्रीसाईसच्चरितात अध्याय २६ मध्ये हेमाडपंत वर्णितात -
दैव शिर्डींचें , म्हणूनि झालें । बाबा तेंथे आगमन आपुलें ।
 पुढें तेथेंचि वास्तव्य केलें । क्षेत्रत्व आणिलें त्या स्थाना ।।२१ ।।
धन्य शिरडीचें सुकृत । कीं हा साई कृपावंत ।
करी या स्थळां भाग्यवंत । अलंकृत निजवास्तव्यें ।। २२।।
ह्याच अध्यायांत हेमाडपंत ह्याचाच पुनरूच्चार करतात -
सन एकोणीसशें दहा सालीं । दासगणूंचीं कीर्तनें झालीं ।
श्रीसाईनाथांची कीर्ति पसरली । यात्रा वाढली शिरडीची ॥५९॥
कुग्राम परी भाग्यें थोर । शिरडी झाली पंढरपूर ।
महिमा वाढला अपरंपार । यात्रा अपार लोटली ॥६०॥ 


अशा ह्या माझ्या सदगुरुंच्या निवासी म्हणजेच शिरडीत , माझ्या साईबाबांच्या पायीच माझी सर्व तीर्थक्षेत्रें आहेत असा भाव हेमाडपंत अत्यंत प्रेमाने वदतात अध्याय ४ मध्ये -
शिर्डीच आम्हां पंढरपूर । शिर्डीच जगन्नाथ द्वारकानगर ।
 शिर्डीच गया काशी विश्वेश्वर । रामेश्वरही शिर्डीच ।।५९ ।।
शिर्डीच आम्हां बद्रिकेदार । शिर्डीच नाशिक - त्र्यंबकेश्वर ।

 शिर्डीच उज्जयिनी महाकाळेश्वर । शिर्डीच महाबळेश्वर गोकर्ण ।।६० ।।   

ह्यावरून आम्हांला सर्व सदगुरु एकच गोष्ट सातत्याने सांगतात की -
अवतीभवती असून दिसेना शोधीतोस आकाशी
कुठे शोधिसी रामेश्वर अन कुठे शोधिसी काशी


सदगुरुंच्या चरणींच माझी सर्व तीर्थक्षेत्रे आणि माझे इष्ट देव, दैवत आहे असा अनन्य शरणागतीचा भावच आम्हांला ह्या भवसागरातून तरून जाण्यास  पर्याप्त आहे, ह्याच भावनेने सदगुरुंना भक्तांनी पूजावे म्हणून अन्य कोणत्याही तीर्थक्षेत्री न जाऊ देऊनही श्रीस्वामी समर्थांनी आपल्या सेवेकर्‍यांच्या इच्छा अक्कलकोटलाच बसल्या जागी पुरविल्याचे बखर सांगते - १७१व्या कथेंत रामशास्त्री सेवेकर्‍याला कार्तिकस्वामींच्या दर्शनाला जाऊ न देतां स्वामींनी अक्कलकोटला  कार्तिक पौर्णिमेच्या दिवशी सहा तोंडे असलेल्या कार्तिकस्वामींच्या रूपाने दर्शन दिले. 

१३९ व्या कथेंत गारोडे येथे राहणारे सीतारामपंत नेने आपल्याला रामाचा साक्षात्कार व्हावा म्हणून राम-उपासना कडक रीतींने करीत होते व पुढे ते स्वामींची कीर्ती ऐकून अक्कलकोटास आले असतां त्यांना एके दिवशी दोन प्रहरी स्वप्नांत स्वामींनी रामरूपाने दर्शन देऊन त्यांच्या शंकाही दूर केल्या.

७५ व्या कथेत पुष्कळ वर्षेंपर्यंत श्रीगुरुदत्तात्रेयांचे दर्शन व्हावें म्हणून अनुष्ठान करणार्‍या एका गोसाव्यास तीन शिरें, सहा हात, सर्व हस्तांमध्ये कमंडलु, त्रिशूळ वगैरे धारण केलेले असे श्रीगुरु दत्तात्रेयांचे दर्शन दिधले होते.   
तसेच आंधळ्या सूरदासाला स्वामी समर्थांनी कृष्णाचे दर्शन दिधले होते दिव्य दृष्टी प्रदान करवून ...

अशा ह्या सदगुरु श्रीस्वामी समर्थांच्या चरणीं  अनन्य भावे सदा असो दंडवत -
ऐशा स्वामी समर्थांना । सदा असो दंडवत  ।
ऐशा स्वामी समर्थांना सदा असो दंडवत 
ऐशा स्वामी समर्थांना सदा असो दंडवत 
ऐशा स्वामी समर्थांना सदा असो दंडवत    

Wednesday 19 April 2017

अणुकिरणोत्सर्गी आयोडीन -१३१ ची युरोप मध्ये गळती - आण्विक अपघाताची दाट चिंता?

काही संस्थांनी हवेच्या नमुन्यांच्या केलेल्या चाचणींमधून आयोडीन- १३१ चे धक्कादायक प्रमाण युरोपीय प्रदेशांमधील हवेमध्ये आढळले, जे आर्क्टिकच्या ध्रुवीय प्रदेशातील संभाव्य  आण्विक अपघाताच्या धोक्याची इशाराघंटा वाजवित आहे जणू ! आयोडीन १३१  हे आयोडीनचे रेडीओऍक्टीव्ह आयसोटोप (Radioactive Isotope) अणुकिरणोत्सर्गी समस्थानिक आहे जे प्रामुख्याने ( न्युक्लिअर फिजन (न्युक्लिअर विखण्डन ) ह्या प्रक्रियेमध्ये वापरले जाते. 

मार्च २०११ मध्ये फुकुशिमा येथे जी आण्विक गळती झाली त्यातून वातावरणात खूप मोठ्या प्रमाणावर किरणोत्सार झाला सल्याचे निदर्शनास आले, ज्यात आयोडीन १२९ हे दीर्घकाळ टिकणारे ( १५.७ दशलक्ष वर्षे)  व वातावरणात हजारो वर्षे तग धरून राहणारे समस्थानिक होते आणि आयोडीन १३१ हे कमी काळ टिकणारे (८ दिवस) . परंतु दोन्ही आयोडीन १२९ आणि आयोडीन १३१ ही किरणोत्सारा दरम्यान मानवाला अत्यंत घातक असे बीटा पार्टिकल्स सोडतात ज्याने थायरॉईड कॅन्सर होण्याची जास्त शक्यता असते. थायरॉईड हे मानव निर्मीत रेडीओऍक्टीव्ह आयोडीन १२९ आणि आयोडीन १३१ विषारी पदार्थ शोषून घेते. प्रत्येक आण्विक आपत्ती किंवा अपघात हे हजारो विषारी पदार्थ , जड धातुची विषारी रेडीओऍक्टीव्ह द्रव्ये बाहेर उत्सर्जित करतातच , परंतु ह्यापैकी खूप कमींची मोजणी होते आणि चर्चा होते.

थायरॉईड ही मानवाच्या शरीरातील ग्रंथी रेडीओऍक्टीव्ह  आयोडीन आणि स्थिर आयोडीन असा फरक समजू शकत नाही. त्यामुळे रेडीओऍक्टीव्ह आयोडीन १२९ किंवा आयोडीन १३१ चे  प्रमाण जेव्हा प्रमाणित प्रमाणापेक्षा अधिक वाढते , तेव्हा थायरॉईड ही रेडीओऍक्टीव्ह  आयोडीनची समस्थानिके असलेले आयोडीन १२९ किंवा आयोडीन १३१ पेशींमध्ये शोषून साठवून ठेवते आणि ते थायरॉईड हार्मोनच्या वाढीसाठी वापरते, पुढे  हेच आजूबाजूच्या पेशींना प्रत्यक्ष धोका देते आणि पुढे त्यांची बेसुमार वाढ होऊन परिणाम स्वरूप कॅन्सर होऊ शकतो.

ह्याच कारणास्तव कोणतीही आण्विक गळती वा  रेडीओऍक्टीव्ह  किरणोत्सार हा धोकादायक म्हणून पाहिला जातो आणि त्याची गंभीर दखलही घेतली जाते. म्हणून अणुकिरणोत्सर्गी आयोडीन -१३१ ची युरोप मधील गळती -  ह्या आण्विक अपघाताची दाट चिंता व्यक्त केली जात आहे.         

आयोडीन -१३१ ह्या रेडीओऎक्टीव्ह पदार्थाचे कण रशियाच्या सीमेजवळील नोर्वे येथील स्वानहोव्ड येथे जानेवारी महीन्याच्या दुसर्‍या आठवड्यात साधारणपणे ९ ते १६ जानेवारी च्या दरम्यान आढळले. असेच Radioactive पदार्थ पुढे फिनीश लॅपलॅण्ड मधील रोवनिअमी (Rovaniemi in Finnish Lapland ), पोलंड, झेक रिपब्लिक , जर्मनी, फ्रान्स, स्पेन येथे पुढील २ आठवड्यातच  आढळले. म्हणजेच थोडक्यात जानेवारी महिन्याच्या शेवटापर्यंत अणु किरणोत्सर्गी आयोडीन -१३१ चे पुराव्यांचे प्रमाण अगदी नगण्य स्वरूपातले असले, आरोग्याला हानीकारक नसले तरी वाढलेले नक्कीच होते.
                                                                   
हवेत आढळलेले आयोडीन-१३१ चे प्रमाण हे खूप कमी तीव्रतेचे असल्यामुळे त्याने लोकांच्या आरोग्याला आणि वातावरणाला काही धोका नसल्याचे निश्चित झाले.
त्यामुळेच आपात्कालीन सज्जता पाहणार्‍या नॉर्वेजियन किरणोत्सार सुरक्षा विभागाच्या प्रमुख अधिकारी ऍसटरीड लिलॅण्ड (head of section for emergency preparedness at the Norwegian Radiation Protection Autority, Astrid Liland, ) ह्यांनी नॉर्वेने ही माहिती उघड न केल्याची कबूली  "बॅरण्टस ऑबझर्व्हर" ( Barents Observer ) ह्या इंटरनेट वेब सर्व्हीसला दिली. 

परंतु फ्रान्सने मात्र आपल्या नागरीकांना ही माहिती ताबडतोब उघड करून सांगितली.  
अशा परिस्थीतीत आयोडीन १३१ चे आढळलेले पुरावे हे कोणत्याही पूर्व काळात घडलेल्या आण्विक गळतीचे नसून ,नुकत्याच  झालेल्या आण्विक गळतीचे असल्याची दाट शक्यता वर्तवित होते. त्यामागील शास्त्रीय कारणही तसेच गंभीर आणि विचारांना चालना देणारे आहे. आयोडीन १३१ चे आयुष्यमान हे खूप कमी काळाचे म्हणजेच अवघ्या ८ दिवसांचेच असते त्यामुळे आयोडीन १३१ चे अंश सापडणे म्हणजे ते फक्त नुकत्याच घडलेल्या आण्विक गळतीमुळे होऊ शकण्याचीच दाट शक्यता दाखवित होते.  
       
अनेक संभाव्य शक्योपशक्यतेचा अभ्यास करूनही  गळतीचे कारण मात्र सापडू शकले नाही. काही संभाव्य कारणांचा अभ्यास केला गेला त्यापैकी -

१. ह्या गळतीच्या दरम्यान अमेरीकी हवाई दलाने WC-135 हे Constant Phoenix  एअरक्राफ्ट  युरोपला पाठवले होते असे आढळले. 
WC-135 हे अमेरीकन हवाई दलाचे Constant Phoenix  एअरक्राफ्ट हे वातावरणातील हवेच्या नमुन्यांमधील संभाव्य आण्विक  स्फोटाचे प्रमाण शोधून काढण्याच्या तसेच आण्विक घटनांना प्रतिसाद देता यावे , कोणत्याही प्रकारचे आण्विक उत्सर्जन घडत असल्यास ते कोणत्या प्रकारच्या आण्विक वा तत्सम शस्त्राच्या माध्यमातून घडत आहे हे शोधून काढणे, आणि स्फोटाची तीव्रता जाणून घेणे अशा  विशेष कार्याच्या उद्देशाने   निर्माण केले गेले आहे.

ट्विटर ह्या सोशल मिडीयावर U.S. Aircrafts Spots ह्यांनी प्रसिध्द केलेल्या मॅप नुसार  WC-135 चा मार्ग खालील दिल्याप्रमाणे आहे जे फ्लोरिडाहून निघून UK's Mildenhall airbaseवर उतरले .

                                                                       

अजूनही अमेरीकी मिलीटरीने "Constant Phoenix"  हे युरोपकडे का पाठविण्यात आले ह्याचे स्प्ष्टीकरण दिलेले नाही.  

२.  रशियाच्या आण्विक चाचणींचा धोका -
दुसर्‍या एका अंदाजानुसार रशियाने आर्क्टिक प्रदेशात आण्विक शस्त्रांची चाचणी पुन्हा सुरू केली असावी किंवा परमाणु बॉम्बची चाचणी करण्याची रशियाची नवी रणनैतिक खेळी असावी असा कयास बांधला जात आहे. परंतु परमाणु बॉम्बच्या चाचणीच्या संदर्भाला सहमती दर्शविणारे कोणतेही भूकंपीय पडसाद/पुरावे सापडले नाही.

अजून एका अनुमानानुसार  नॉर्वेच्या सीमेलगतच्या कारा समुद्र आणि कोला पेनिन्सुला ह्या भागातील मोठ्या प्रमाणावरील रशियाचा आण्विक कचरा आणि विघटन होऊ  घातलेल्या आण्विक पाणबुड्या ह्यासुध्दा ह्या सध्याच्या आण्विक गळतीचे कारण असण्याची संभाव्यता वर्तविली जाते.

शीत युध्दाच्या दरम्यान आणि नंतर  रशियाने प्रक्रिया न केलेल्या आण्विक वेसल्स. अणुभट्टीचे वापरलेले फ्युएल रॉड , किरणोत्सर्गी आण्विक कचरा हा आर्क्टिक प्रदेशात विल्हेवाट लावण्यासाठी डम्प केला आहे. बर्‍याच जणांनी हा किरणोत्सर्गी गळती करणारा आणि प्रदूषण वाढविणारा  टाईम-बॉम्बच  असल्याची संतप्त प्रतिक्रिया नोंदवली आहे.

३. आयोडीन १३१ चा औषधोपयोगी वापर -
काही मंडळी असा दावा करीत आहेत की आयोडीन १३१ चे हवेतील प्रमाण हे आण्विक अणुभट्टीतील आण्विक प्रक्रियेमुळे असू शकते तर काहींच्या मते आयोडीन १३१ हे समस्थानिक ( isotope ) हे मोठ्या प्रमाणावर औषधांमध्ये (कॅन्सरच्या प्रतिबंधात्मक औषधांमध्ये ) वापरले जाते आणि म्हणून जगातील बहुतांशी राष्ट्रे ही आयोडीन १३१ चे जागतिक पातळीवर उत्पादन देखिल करतात, त्याच्याशी हे निगडीत असू शकते.
आण्विक अणुभट्ट्यांचे चालक वा तत्सम संस्था ज्या आयोडीन १३१ चा औषधोपयोगी वापर करतात त्या ह्या किरणोत्सर्गी वापराचा बाह्य वातावरणात उत्सर्ग करण्यासाठी डिटेक्टरचा वापर करतात, ज्यामुळे ह्याची शक्यता खूपच नगण्य असावे असा मतप्रवाह आहे. 

सद्य स्थितीत होत असलेल्या आयोडीन १३१ च्या किरणोत्सर्गी गळतीचे मूळ शोढून काढण्याच्या निष्कर्षाप्रत पोहचताआले नाही असे चित्र दिसते आहे. जरी संबंधित राष्ट्रांचे एकमेकांवरील दोषारोप आणि नकारात्मक युक्तिवाद  काहीही असले आणि त्याचे आंतरराष्ट्रीय पातळीवर उमटणारे सूर काही असतील तरी देखिल सामान्य माणसाने आण्विक दुर्घटना ही अपघाताने घडलेली असो वा मानव निर्मीत असो , त्याकडे दुर्लक्ष करून चालणारे नाही . उलट अशा प्रकारच्या आण्विक गळतींपासून होणारे  विघातक परिणाम , त्यांपासून उद्भवणारा धोका जाणून घ्यायला पाहिजे आणि त्या आपत्तीला तोंड देण्याच्या व्यवस्थापनाची अद्ययावत सुसज्जता करूनच ठेवली पाहिजे आणि हेच वास्तवाला सभानतेने , सजगपणे सामोरे जाणे असेल जे समस्त मानवांना नैसर्गिक वा मानव -निर्मीत आपत्तींपासून तारू शकेलअसे वाटते.  

संदर्भ:

पिपा शब्द अन तूच सारथी !

आज १९ एप्रिल. साईभक्तीत आकंठ डुंबून आपले अवघे जीवन ज्यांनी आपले सदगुरु श्रीसाईनाथाच्या, साईरामाच्या  चरणी समर्पित केले अशा महान साईभक्ताचा  आज समाधी स्थानम् स्थापना दिन सोहळा गुरुकूल , श्री क्षेत्र श्री जुईनगर येथे अनुभवण्याचे सौभाग्य आज माझ्या साईरामाने त्याच्या अनिरूध्द प्रेमाने मला दिधले आणि हा जीव साईप्रेमात , साईभक्तीत अवघा न्हाऊन निघाला, मन सर्वार्थाने तृप्त जाहले, सदगुरुंच्या प्रेमाच्या सुमधूर भक्तीने परिप्लुत अभंगाच्या श्रवणाने अवघी काया धन्य धन्य झाली. त्या महान साईभक्ताचा परिचय करवून घेणे म्हणजे खरेच जीवनी सदगुरुला कसे वसवावे , कसे "त्या"च्या प्रेमात स्वत: न्हाऊन निघावे आणि अवघ्या जनांना न्हाऊ घालावे,  ह्याची शब्दातीत, अवर्णनीय  अशी अनुभूती...
"ह्याची देही ह्याची डोळा "अनुभवून सदगुरुंच्या प्रेमाची पिपासा अनंत पटींनी वृध्दींगत झाली.  
                                                                              

        
हे साईभक्त म्हणजे आद्यपिपा श्री सुरेशचंद्र दत्तोपाध्ये ! त्यांच्या सदगुरु साईनाथांवरील अविचल भक्तीमुळे त्यांना आद्यपिपा म्हणजेच भक्तीमार्गावरील सर्वात प्रथम पिप्पलिका पांथस्थ ह्या पदाने भूषविले जाते.


दरवर्षी १९ अप्रिल ह्या दिवशी श्री जुईनगर गुरुकूल येथे श्री आद्यपिपादादा समाधीस्थानम् स्थापनादिन सोहळा साजरा करण्यात येतो अशी माहिती गुरुकूल, जुईनगर येथे समजली.

 "न्हाऊ तुझिया प्रेमे’ म्हणजेच सदगुरुंच्या भक्तांवरील अनिरुद्ध प्रेमाचा प्रेमोत्सव आणि आपण सारे श्रध्दावान तो साजरा करू शकलो ते केवळ आणि केवळ ह्या आद्यपिपांच्या पिपासेमुळे... अवघ्या काया, वाचा ,मनाला सदगुरु साईबाबांच्या अनिरुध्द प्रेमाच्या एका थेंबाने अवघे न्हाऊ घालता येते हे मर्म जाणून त्यांनी आपल्याला हा अनिरुध्द प्रेमाचा हा अमृतकुंभ त्यांच्या त्रिकालाबाधित अजरामर अशा अभंगवाणीतून नित्य पाजला आणि आजतागायत तोच प्रेमरस ते विदेही अवस्थेत असूनही पाजीतच आहेत. ह्याच आद्यपिपांच्या अभंगवाणीमुळे २६ मे २०१३ रोजी नारद जयन्तीच्या पावन पर्वावर  श्रद्धावानांची अनिरुद्धप्रेमयात्रा सुरू झाली आणि ती आजतागायत अव्याहतपणे सुरू आहे आणि अशीच पुढे सुरु राहणार आहे अशी माहिती मिळाली.

‘न्हाऊ तुझिया प्रेमे’ म्हणजे सुंदरकांडात जे संत तुलसीदास साक्षात महाप्रभु  महाप्राण हनुमंतांनी साक्षात आल्हादिनी भक्तिस्वरूपा जानकी मातेला कथिलेल्या "तुम ते प्रेमु रामु के दुना" ह्या ओवीची प्रचिती म्हटले तर वावगे ठरणार नाही असे जाणवले. अवघी संताची मादियाळी सुध्दा कायम आपल्याला सदगुरुंच्या आपल्यावरील अगाध , अफाट प्रेमाची महती आपल्याला वारंवार समजावून सांगतेच ना ! त्याचीच प्रचिती म्हणजे हा सोहळा!   
आद्यपिपांच्या अभंगांचे सुश्राव्य आणि सुमधूर असे भावपूर्ण गजर ऐकताना श्रध्दावान आपल्या सदगुरुंच्या  अनिरुध्द्प्रेमाने अवघे न्हाऊन निघतात, जणू सार्‍या मनीच्या भावनांना भक्तीरसात, प्रेमरसात चिंब भिजविण्याची जणू Master Key च अलगद आपल्या हातात दिली जाते. ह्या साध्या सोप्या भाषेतील अभंगाचा भावार्थ कळल्यामुळे त्या अभंगातील भाव अधिकच गहराईने हृदयात खोचला जात होता आणि त्या स्थानावरून  तसूभरही हलण्यास मन तयार होत नव्हते.

आद्यपिपांनी सदगुरु साईनाथांची भक्ती आपल्या घराण्यातून प्राप्त केलीच होती आणि पुढे सदगुरुतत्त्व हे सदैव एकच असते ह्या श्रीसाईसच्चरीतातील हेमाडपंतांनी अकराव्या अध्यायांतील डॉ पंडिताच्या कथेत कथिल्याप्रमाणे आद्यपिपांनी तेच तत्त्व आपल्या उराशी कवटाळले आणि पुढे सदगुरु डॉ अनिरूध्द जोशी ह्यांची भेट घडता तेच स्वत: प्रत्यक्षात अनुभविले आणि आजीवन जोपासिले सुध्दा ! जसे डॉ पंडितांनी आपल्या ब्रम्हीभूत झालेल्या गुरूंना "काका पुराणिक " ह्यांनाच सदगुरु साईबाबांच्या ठायी स्मरून त्रिपुंद्रलेखन त्यांच्या भाळी केले तसेच त्याच भावाने आपल्या जीवनाचे तुलशीपत्र  सदगुरु साईनाथांची भक्ती स्मरून आणि आपल्या साईरामाला सदगुरु डॉ अनिरूध्द जोशींच्या ठायी स्मरले आणि प्रकटले बोल - वाहू तुझिया चरणीं भाळ हेचि तुळशीपत्र माझे "

मानवाने आयुष्यात काय धरावे, काय टाकायचे नाही ह्याचे गमक ते आपल्या "धरलेले सोडू नको रे पकडलेले टाकू नको" ह्या अभंगाद्वारे सांगतात. माणूस आयुष्यात नेहमी स्वत:चे घर बांधायचे स्वप्न पाहतो, तकलादू घर बांधतो आणि उध्वस्त झाले की रडत राहतो, पण कळीकाळाच्या तडाख्यातही न विस्कटणारे नामस्मरणाच्या भिंतींनी बांधावयाचे घर आद्यपिपाच दावतात.

आपल्या जीवनात सदगुरुच्या येण्यानेच खरा जीवनाचा अर्थ आम्हा मानवांना उलगडतो, सदगुरुच आमच्या जीवनाची कळी फुलवितो , पुष्प उमलवितो तर मग ती कृतार्थता सदैव उरी बाळगून , पदोपदी जपत त्याच्या चरणांशी स्वत:ची तुटलेली नाळ कशी अधिकाधिक दृढ करायची व स्वत:चे जीवन "त्या"च्याच चरणी कसे समर्पित करायचे हे सहज सोपे करून दावतात आद्यपिपाच्या "जीवनी माझ्या बा अनिरूध्दा श्वासासंगे येत रहा " सदगुरुशी अखंड नाळ जुळवायची तर श्वासासंगे "त्या" एकाचेच नाव जीवनी यायला हवे -- किती किती प्रेमळा भाव आहे ... सदगुरुंच्या नामाच्या कुदळीने माणसाचे दुष्प्रारब्ध नष्ट होतेच मग अशा त्या नामाच्या कुदळीनेच माझ्या घराचा पाया खोदून तूच तर्क -कुतर्क, शंका-कुशंकाचे खड्डे गाडून टाक आणि तुझ्याच नामरूपाचे खांब लावून तूच मला घर बांधून दे म्हणून "त्या" अकारण कारूण्याची खाण असलेल्या सद्गुरुमाऊलीला आळवायचे. हे सदगुरुनाथा तूझ्या स्मरणाच्या भिंतीच चहू बाजूंनी उभ्या राहू दे आणि यायला जायला दारच ठेवू नकोस रे . म्हणजे अशा तू मला बांधून दिलेल्या घरात फक्त "तू आणि मी"च राहू --- "एक तत्व नाम दृढ धरी मना " ह्याचीच सोपी शिकवण नाही का बरे?

सदगुरुंच्या प्रेमाशिवाय जगात दुजे काही सत्य नाही म्हणूनच केवळ "त्या" एकाचीच पिपासा माझ्या जीवनी असावी आणि हे "त्या" सदगुरुविना मी करूच शकत नाही हे परम सत्य जाणून "त्या"लाच साद घालीत राहणे म्हणजेच - "जीवनी माझ्या बा अनिरूध्दा श्वासासंगे येत रहा ...." जीवीच्या जीवलगाला घराच्या वास्तुशांतीला न बोलावता , घरच बांधायला आमंत्रण देणे आणि तेही कसे तर "श्वासाच्या रथावर आरूढ करून"

या विश्‍वात फक्त माझा सद्गुरु, माझा साईनाथच  माझा सखा आहे आणि आजही "तो"च सदगुरु नवीन नाम रूपाने माझ्या जीवनी अनिरुद्ध बनून अवतरला आहे , "त्या"चे साईरूपच आज अनिरूध्दपणे माझा आधार बनून माझे अवघे विश्व व्यापून  माझा बाप माय बनून आले आहे ,माझा सदगुरु हाच माझा आहे म्हणून एकदा मी जीवनात सदगुरुला धरले तर "त्या: ला कधीच सोडता कामा नये , "त्या" एकाशी मी माझी नाळ जोडली तर ती नाळ कधीच तोडता कामा नये, पकडलेले "त्या"चे चरण कधीच टाकू नये ही तळमळ एक सच्चा भक्तच जाणू शकतो.
आणि तेच आद्यपिपा त्यांच्या दुसर्‍या अप्रतिम अभंगातून सांगतात - माय-बाप सोडून जातील काळाच्या ओघात , स्नेह संबंधी हात सोडतील पण हा "एक"च माझा आहे जो मला काळाच्या ओघातही न वहावत जाता, न बदलता साथ देतो- मी सोडले तरी "तो " मला सोडीत नाही.

श्रीसाईसच्चरित - साईबाबा जणू अवघे उतरतात आद्यपिपांच्या अभंगातून - शेळ्यांची कथा असो की साप-बेडूकाची कथा , मनुष्य जन्म असो की भोग योनी तील प्राणी जन्म - एकमात्र सदगुरुच साथ देतो हेच तत्व हा अभंग ठायी ठायी जाणीव करून देत राहतो. 

श्रीसाईसच्चरितातील  सदगुरु साईबाबांच्या शब्दांनी दामू अण्णा कासार प्रपंचात तरून गेला - कापसाच्या व्यापारात नुकसान होण्यापासून वाचला आणि परमार्थातही सदगुरुंच्या शब्दांचे पालन करून तरला गेला ह्याचीच जणू आठवण करून देतात - ह्या ओळी  - "प्रपंचात तव शब्दे तरलो परमार्थी तव शब्दे फुललो " खरेच सदगुरुंच्या शब्दातच अवघे ब्रम्ह सामावलेले असते आणि  "त्या" ला माझ्या जीवनाचा सारथी बनविला तरच जीवनातील महाभारताचा रण संग्राम मी जिंकू शकतो, जसा अर्जुनाने जिंकला भगवान श्रीकृष्णाला आपल्या जीवन रथाचे सारथ्य सोपावून ! पिपा शब्द अन तूच सारथी !

अशा पिप्पलिका पांथस्थ बनून सातत्याने भक्तीचा नंदादीप जीवनात तेवत ठेवणार्‍या आद्यपिपांच्या स्मृतीला आजीवन उरी कवटाळता येवो आणि पिपलिका (मुंगी) बनून अनिरुध्दचरणरूपी गुळालाच मुंडी तुटो वा राहो चिकटून राहता येवो हीच पिपासा अंतरी जागो !!!

Thursday 13 April 2017

रासायनिक दहशतवादाची इशाराघंटा

दैनिक प्रत्यक्षच्या दिनांक ०६-०४-२०१७ च्या अंकातील आंतरराष्ट्रीय बातम्या सदरात " सिरीयातील रासायनिक हल्ल्यात १०० जणांचा बळी " - जगभरातून तीव्र प्रतिक्रिया  -ह्या बातमीने काळजाचा खरोखरी थरकांप उडाला. सिरीयाच्या ’इदलिब" प्रांतातील ’खान शेखोन’ ह्या शहरात मंगळवारी अमानुष रासायनिक हल्ला झाला ज्यात किमान १०० जणांचा बळी गेला होता तर ४०० हून अधिक लोक गंभीररित्या जखमी झाले होते. गेल्या ६ वर्षांपासून सिरियामध्ये सुरु असलेल्या गृहयुध्दातील हा सर्वात भीषण रासायनिक हल्ला मानला जातो.’सरीन ’ ह्या विषारी वायूचा वापर केलेल्या रॉकेट्सचे हल्ले ह्या शहरावर करण्यात आले. जगभरातून अतिशय संतप्त आणि तीव्र प्रतिक्रिया उमटत आहेत. 

हा अमानुष घृणास्पद हल्ला कोणीही चढविला असला तरी ह्यात स्त्रिया, लहान मुलांचाच  मोठ्या प्रमाणावर बळी गेला आहे ह्याची दखल  न घेऊन चालणार नाही. 

 

सरीन हा अत्यंत प्राणघातक विषारी नर्व्ह वायू आहे, जो पर्सिस्टन्ट किंवा सेमीपर्सिस्टन्ट द्रव पदार्थाच्या स्वरूपात उपलब्ध असतो, जो न दिसणार्‍या वाफा निर्माण करतो, या वाफांना वासही नसतो. हा वायू डोळे, श्वसनमार्ग, त्वचेतून शरीरात प्रवेश करतो. ह्याचे दृश्य परिणाम म्हणजे डोके दुखणे, छातीवर दडपण येणे/जाणवणे, डोळ्यांची बुब्बुळे लहान होणे. तसेच मज्जासंस्थेवरही ह्या वायूचा गंभीर परिणाम होऊन परिणामी मृत्युही होऊ शकतो. 

सरीन हा सर्वात घातक आणि त्वरीत प्रभावी ठरणारा रासायनिक पदार्थ आहे, जो श्वासावाटे शरीरात गेला असता किंवा त्वचेवाटे शरीरात शोषला गेला असता तात्काळ फुफ्फुसे, स्नायु, आणि मज्जासंस्थेचे भाग ह्यावर परिणाम करतो, आणि ज्यामुळे श्वासाची घुसमट सुरु होऊन गुदमरणे, आंकडी किंवा फिटस येणे, पॅरालिसीसचा झटका येणे, आणि वेळप्रसंगी मत्यु सुध्दा संभवतो.   

सरीन हे रासायनिक अस्त्र १९३८ मध्ये नाझी शास्त्रज्ञांनी शोधून काढले होते आणि आंतरराष्ट्रीय कायद्यानुसार  १९९३ मध्ये त्याच्या वापरावर  प्रतिबंध आणला गेला होता. असे असून देखिल सरीन ह्या विषारी वायूचा वापर युध्दात पूर्वीदेखिल केला गेला होता असे आढळते.
सिरियन सैन्याने २०१३ मध्ये दमास्कस प्रांतात केलेल्या हल्ल्यात १४०० हून अधिक लोक मारले गेले होते. ’इदलिब’ प्रांतात तर मंगळवारी झालेला रासायनिक हल्ला हा दुसर्‍यांदा झाला आहे, त्या आधी २५ मार्च रोजी ’लाताम्नेह’ शहरातील एका रूग्णालयावर झालेल्या हल्ल्यात एका डॉक्टरसह २ रूग्णांचा देखिल बळी गेला होता.

'वर्ल्ड हेल्थ ऑरगनायझेशन' (WHO) च्या एका अहवालानुसार 'सरीन' हा वायू विषारी समजल्या जाणार्‍या सायनाईड वायुच्याही २६ पटीने जास्त प्राणघातक आहे ह्यावरून ह्या हल्ल्याची तीव्रता आणि होणारे विदारक दुष्परिणाम ह्यांची अवाढव्य व्याप्ती किती आवाक्याबाहेरची असेल हे ध्यानी येते.   

सिरियामध्ये ह्या आधी घडलेल्या रासायनिक हल्ल्यांची जबाबदारी ’आयएस’ ने स्विकारली होती. इराकच्या मोसूल प्रांतातील रूग्णालयातून तसेच सिरियन लष्कराच्या शस्त्रास्त्राच्या कोठारातून ’आयएस’च्या दहशतवाद्यांनी  विषारी वायू आणि रासायनिक रॉकेट्सची चोरी केल्यामुळे ’आयएस’चे दहशतवादी त्या रासायनिक शस्त्रास्त्रांचा कसा आणि कधी वापर करतील ह्याबाबत चिंतेचा घोर सार्‍यांच्याच मागे लागून राहिला आहे.      

सिरियात झालेल्या रासायनिक हल्ल्यानंतर अमेरिकेने सिरियातील हवाईतळांवर क्षेपणास्त्र हल्ला केला आहे. भूमध्य समुद्रातल्या युद्धनौकांमधून सुमारे ६० टॉमहॉक क्षेपणास्त्रांचा मारा केला गेला. मध्य सिरियातील सरकारनियंत्रित हवाईतळावर हा हल्ला झाला आहे. याच तळावरून सिरियन लष्करी विमानांनी रायासनिक हल्ल्यासाठी उड्डाण केले होते.

हा सर्व विध्वंस पाहता रासायनिक दहशतवादाची इशारघंटा ऐकून आपल्यावर हे संकट अजून ओढावले नाही तोवर शांत बसू असे बघ्याची भूमिका घेऊन चालणार नाही . काही दिवसांपूर्वी पाकिस्ताननेही अफगाणिस्तान सीमेवर रासायनिक हल्ला केल्याच्या बातम्या आल्या होत्या. यानंतर भारताच्या लष्करप्रमुखांनी रासायनिक हल्ल्याविरोधात सज्ज राहण्यास भारतीय यंत्रणांना सांगितले होते. आपल्या शेजारी देशाच्या भारतद्वेषाबद्दल काही नव्याने सांगायला नको. तसेच त्या देशावरील दहशतवाद्यांचा वाढलेला प्रभाव भारतासाठी डोकेदुखी आहे. पाकिस्तानकडील अण्वस्त्रांबरोबर रासायनिक शस्त्रेही दहशतवाद्यांच्या हाती लागण्याची शक्यता नाकारता येणार नाही. त्यामुळे भारताने अशा हल्ल्यासाठी सज्ज राहणे गरजेचे आहे.
संदर्भ:
१. दैनिक प्रत्यक्ष दिनांक ०६-०४-२०१७
२. तिसरे महायुध्द - लेखक डॉ. अनिरूध्द धैर्यधर जोशी
३.  Disasater Management - Aniruddha's Academy of Disasater Management 

सूचना - हा लेख पहिल्यांदा दैनिक प्रत्यक्षच्या दिनांक १३-०४-२०१७ रोजीच्या अंकात ’व्यासपीठ" ह्या सदरात प्रसिध्द झाला होता. 

Saturday 8 April 2017

साईकथा का अचिंत्यदानी फल -जिस जिस पथ पर भक्त साई का वहां खडा है साई।

हरि ॐ.
ॐ कृपासिंधु श्रीसाईनाथाय़ नम:
श्रीसाईसचरित में साईकथा पढ्ते हुए हमें साईकथा को अपने जीवन में कितनी अहमियत देनी चाहिए, ये कथा पढकर हमें साईबाबा के पथ पर हमारे साईबाबा की उंगली थामकर कैसे चलना है, बिना किसी झिझक से, बिना किसी संदेह से ! इन बातों की तरफ गौर फर्माना अत्यंत आवश्यक है ।  हमें श्रीसाईसच्चरित में साईबाबा की कथाएं पढकर छोड नहीं देना है, या भूल नहीं जाना है । जब कोई भक्त साईनाथ की कथा श्रवण कर रहा होता है, उन कथाओं का पठन कर रहा होता है, उनका मनन, चिन्तन कर रहा होता है, साई प्रेम में अपनी सूध बूध खो बैठता है और सिर्फ साईबाबा को ही प्यार से निहारता है, साईबाबा की लीलाओं के रसपान में ही पूरी तरह डूब जाता है , पूरी तरह से तल्लीन हो जाता है, तो ऐसे समय उस भक्त को अपनी चिंता करने की जरूरी नहीं होती क्यों कि साईनाथ खुद अपने ऐसे भक्तों का ध्यान सदैव रखते ही हैं। हम सामान्य मानव ही, आगे क्या घटना घटित होने वाली है, हम इसके प्रति कुछ मालूम नहीं हो सकता ,परन्तु बाबा मात्र सबकुछ जानते हैं इसीलिए हम पर जब कोई संकट-मुसीबत आनेवाला होता है, तब हम साईकथा में, उनकी लीलाओं में खोये रहने के कारण स्वयं साईनाथ ही उस संकट को, उस मुसीबत को मुझ तक आने से पहले ही उस संकट का, मुसीबत का निवारण कर चुके होते हैं। उनकी योजना ही कुछ ऐसी होती है कि वह संकट अथवा मुसीबत हमें छू भी नहीं सकते हैं। 

साईनाथ की इस भक्तवत्सलता के बारे में और उनकी बिना किसी हेतू से अपने भक्तों की भलाई ही करने के स्वभाव के बारे में कुछ अनोखी बातें पढने में आई , जिससे मेरे साईबाबा का मेरे प्रति कितना प्यार रहता है, हमेशा मेरी भलाई हो, मेरे रास्ते के मुसीबत मुझे जरा सी भी तकलीफ भी ना पहुचाए इसिलिए मेरे साईबाबा ही कितनी सभानता रखतें हैं , हमारे लिए हमारे साईबाबा के कितना परिश्रम करतें हैं ,कितनी कठोर मेहनत करतें हैं , इसका अंदाजा आया और साई के चरणो  के प्रति और जादा प्यार उमड आया । लेखक महोदयजीने अपने लेख में -
http://www.newscast-pratyaksha.com/hindi/shree-sai-satcharitra-adhyay2-part15/

इस बात को उजागर किया है भली भांति से कि -
मान लो की मेरी उपासना अथवा सेवा में उस समय इतनी शक्ती नही है कि उससे मेरे प्रारब्धभोग का समूल नाश हो सके, तब साईनाथ ऐसी योजना करते हैं कि, उस मुसीबत की घड़ी में मुझे हर प्रकार की सहायता अपने आप मिलते रहती है। लेखक जी ने रोजाना की जिंदगी में आनेवाली आकस्मिक मुसीबत के बारे में बताकर हमें बहुत ही सुंदरता से समझाया है कि मेरे साईबाबा कैसे हर पल मेरा साथ निभाते हैं ।  उस कथा को लेखकजी के जुबानी पढना, सुनना जादा मुनासिब रहेगा । इसिलिए आप सभी उपर दिए हुए लिंक पर जाकर उसें पढें ।

भले ही मेरे पास भक्ती का , उपास्ना का , सेवा का कोई भी पुण्य नहीं जुटा है , फिर भी ऐसा इंसान जब साईबाबा की चौखट पें अपना सिर रखता है, तभी साईबाबा उसे धुतकारतें नहीं, या वापस लौटातें नहीं , बल्कि अपनी  कृपा से उसके प्रारब्धभोग का समूल नाश कर देंते हैं और उसकी फटी झोली खुद ही  सिलाकर अपनी करूणा से, क्रुपा से भर देतें हैं ।  यही बात दिखलाती है भीमाजी पाटील की कथा ।   

अध्याय १३ में भीमाजी पाटील की कथा में हम यह बात अच्छी तरह देख सकतें हैं कि भीमाजी पहले सुखी जीवन बिता रहें हैं , उन्हें कोई दुख नहीं है,ना कोई परेशानी ।  घर में मानो सुख के भांडार भरें पडे है, पर उस समय भीमाजी को भगवान की याद नहीं आती । फिर यकायक उनके जीवन में क्षय की जानलेवा बीमारी आ जाती है। अनगिनत कोशिशों के बावजूद या दवा की कोशिशों के बावजूद  भीमाजी अपने जीने की आशा खो बैठतें हैं और तभी अचानक उन्हें अपने दोस्त नाना चांदोरकरजी की याद उन्हें खुद साईनाथ ही दिलातें हैं - यह है मेरे साईबाबा का अनोखा प्लान ! भीमाजी नाना चांदोरकरजी का खत पढतें ही साईबाबा को मिलाने शिरडी जातें हैं और करूणा के सागर, कृपासिंधु साईबाबा बिना किसी औषधी के सिर्फ अपनी कृपादृष्टी से ही भीमाजी को ठीक कर देतें हैं । रात में दो विचीत्र सपने में आकर साईबाबा इस बीमारी से उन्हें मुक्ती दिलातें हैं ।यहां हमें हमारी साईबाबा का अपने बच्चों के प्रति लगाव , और अनोखा प्यार समझ में आता है ।

यह हो गयी बीमारी या जानलेवा खतरे की बात । किंतु अगर मैं अपनी सुध-बुध खोकर भी  भक्ती करना चाहता  हूं , तो वहां भी मेरा साईनाथ खडा रहता ही है, अपने बच्चे की सहायता के लिए ,तत्पर खडा रहता है, हाजिर रहता है । भले ही उसका वो बच्चा उसे अपनी मुसीबत की घडी में आवाज देकर, बुहार लगाकर, पुकार कर बुलाने में समर्थ ना हो , फिर भी साईनाथ अपने उस बच्चे का खयाल रखने के लिए वचनबध्द है ही -
 जिस जिस पथ पर भक्त साई का , वहां खडा है साई । 

अध्याय २२ में हेमाडपंतजी हमें अपने स्वंय का अनुभव सुनातें हैं कि वो काका दीक्षितजी के मकान पर रात को "रामकथा " का पाठ सुनने जातें हैं और रामकथा सुनने में इतने मगन होजाते है कि अपनी सुध -बुध खो बैठतें हैं । तब उनके दाहिने कांधे पर के उपरण में एक बिच्छू आकर बैठ जाता है। परन्तु रामकथा के चलते काफी समय  बितने के बावजूद भी बिच्छू वहाँ पर बैठे रहने पर भी वह उन्हें दंश नहीं कर सकता है। हेमाडपंत का ‘ध्यान(मन)’ पूर्णत: रामकथा सुनने में मगन  हो गया था, वह बिच्छू कब आकर उनके उपरण में बैठ गया इस बात पर उनका ध्यान भले ही न हो, परन्तु जो हरिकथा में दक्ष है उसकी ओर साईबाबा का पूरा ध्यान है। बाबा ही फ़िर समय रहते ही हेमाडपंत का ध्यान इस ओर आकर्षित करते हैं और उस संकट से उन्हें बचाते हैं। बिच्छू उनके उपरण में इतने समय तक बैठे रहने के बावजूद भी वह हेमाडपंत को दंश नहीं कर सका।   
हेमाडपंतजी यह बात बतातें हैं कि -
यहाँ पर भी बाबा का ध्यान। मेरा न था वहाँ पर ध्यान।
पर जो हरिकथा में दक्ष। उसके संरक्षक हरि स्वयंता॥

यह बात हमें सिखाती हैं -
मेरे साईबाबा की कथा मुझे  कैसा बिना सोचा हुआ - अचित्यदानी फल देती है और मेरे साईबाबा कैसे मेरे हर पल , हर कदम पर मेरे साथ है ही -१०८ % सच बात - जिस जिस पथ पर भक्त साई का वहां खडा है साई                                                                                                                                                                                                                                                                                                 

Wednesday 5 April 2017

मेरे साई को दिल में उतारने का आसान उपाय - साईकथा बारंबार सुनना !



                                                      ॐ कृपासिंधु श्रीसाईनाथाय नम:


तस्वीर तेरी दिल में जिस दिन से उतारी है
फिरूँ तुझे संग लेके , नये नये रंग लेके
सपनों की महफिले में 
१९६१ साल का "माया" पिक्चर का यह गाना बहुत ही मशहूर हुआ था , जिसके बोल मजरूह सुल्तानपुरीजी ने लिखे थे और सलीलदा के संगीत का अनोखा जादू भरके उसमें मानों चार चांद जुड गये थे । देखिए यह फिल्मी गीत हमें कितनी आसानी से प्यार की परिभाषा सिखाता हैं । आम जिंदगी में हमें जो चीज भा जाती है  या जो इंसान से हमें प्यार हो जाता है उसे हम बारंबार याद करतें हैं , उसकी तस्वीर मानो दिल में उतार लेंतें हैं , चाहे वो नन्हा सा प्यारा सा बच्चा हो या फिर नौजवान युवक हो या युवती हो या फिर कोई दिल को छू जानेवाली किताब हो या फिर फिल्म हो या फिर कोई मन को लुभानेवाला फिल्मी गाना हो । जो चीज हमें अच्छी लगती हैं , या भा जाती हैं , उस चीज को या इंसान को हम बार बार याद करते रहतें हैं ।
ये हो गयी हमें अच्छी लगनेवाली बात के बारे में पर कभी कभी ना चाहनेवाली बात भी हमें याद रखने के लिए बल जोरीसे ना चाहते हुए भी बार बार करनी पडती है । स्कूल के दिनों में कोई ना कोई बिषय से हमारी दुश्मनी रहती है , जिसे हमें ना चाहते हुए भी पढना पडता था जैसे की मॅथ्स के फॉर्म्युले हो या शास्त्र के नियम हो या इतिहास के साल हो, हमें जो चीज पसंद नहीं उसे भी बारंबार याद करके ही हमारी याददाश्त में वो तस्वीर बन जाती है ।

इससे ये बात तो हम समझ ही जातें हैं कि चाही या अनचाही बात की तस्वीर दिल में उतारने के लिए हमें हमेशा वो  चीज बारंबार करनी पडती है । अभी हेमाडपंतजी तो हमें पहले ही अध्याय में बतातें हैं कि मेरे साई से इतना प्यार किजीए कि हर जगह मुझे बस्स मेरे साईबाबा ही नजर आने चाहिए । तस्वीर तेरी दिल में जिस दिन से उतारी है, फिरूँ तुझे संग लेके , नये नये रंग लेके इसका आसान सा अर्थ मैंने यह जाना ।
हेमाडपंतजी कहतें हैं कि-
ज्या ज्या दुज्या तुज उपमावें । तो तो आहेस तूंचि स्वभावें । 
जें जें काहीं दृष्टीस पडावें । तें तें नटावें त्वां स्वयें ।। ४९ ।। 
                                                                                       - अध्याय १ , श्रीसाईसच्चरित

यानि कि मैं किसी भी चीज की उपमा तुम्हें देने की बात सोचूं भी तो हे मेरे साईनाथ तुजमें तो वो गुण पूरा का पूरा पहले से ही बसता है, और मैं जो भी देखू तो मुझे वहां बस तू ही तू खुद नजर आता है।
आहे दूसरी ओवी में भी हेमाडपंतजी लिखतें हैं कि
साईंनी मज कृपा करून । अनुग्रहिले जैंपासून । 
तयांचेंचि मज अहर्निश चिंतन । भवभयकृतंन तेणेनि ।। ७८ ।।
                                                                                              - अध्याय १ , श्रीसाईसच्चरित

याने हेमाडपंतजी ने जिस दिन साईं की धूलभेंट ली , उसी दिन से अपने साई कीं तस्वीर अपने दिल में उतार ली क्यों कि वे बारंबार अपने साईबाबा का ही चिंतन करने लगे थे । 

यह बात से पता चलता है कि अगर मुझे साईबाबा को अपना है, उन्हें मेरा अपना बनाना है , तो हमें हमारे साईबाबा को बार बार याद करना हैं , निहारना हैं , बारंबार उनकी कथा को सुनना है, पढना है ।

कोई कहेगा मैंने एक बार तो श्रीसाईसच्चरित पढ लिया, अब बार बार क्या पढना ? तो इस के बारे में मुझे याद आतें हैं मेरे साई के ही शब्द - स्वयं बाबा ने ही २१ वे अध्याय में एक प्रांत अधिकारी से कहा है, ‘आप्पा ने जो बताया है उसे पूर्ण रूप से आचरण में उतारने से ही भला होगा।’ और वो कैसे होगा  तो -
‘‘ग्रंथ करना है पहले श्रवण।
उसी को फ़िर करना है मनन।
फिर पारायण आवर्तन।
और करें निदिध्यासन।

पढ़ना ही का़फ़ी नहीं है।
ज़रूरी है उसे आचरण में लाना।’’

यह बारंबार ग्रंथ पडने से अपने आप ही मेरे साईबाबा की तस्वीर मेरे दिल में उतरने लगती है , बिना कोई कष्ट उठाए 
‘‘ग्रंथ करना है पहले श्रवण।
उसी को फ़िर करना है मनन।
फिर पारायण आवर्तन।
और करें निदिध्यासन।

पढ़ना ही का़फ़ी नहीं है।
ज़रूरी है उसे आचरण में लाना।’’
यह इतनी आसानी से सच में होता है क्या , इस बारे में मन में सवाल आया , तभी साईबाबा की कृपा से एक लेख पढने में आया जिस में  लेखक महाशय ने  मानव के मन को कोई भी चीज बारंबार क्यों करनी चाहिए इस बात को बहुत ही अनोखी ढंग से पेश किया था -
http://www.newscast-pratyaksha.com/hindi/shree-sai-satcharitra-adhyay2-part14/

लेखक महाशय जी ने बताया-
अकसर हमसे यह कहा जाता है कि परमात्मा के चरित्र का, संतों के चरित्र का बारंबार पठन, मनन एवं चिंतन करना चाहिए। यहाँ पर बारंबार यह शब्द बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यह बारंबार की जाने वाली क्रिया मन के लिए अति आवश्यक है। क्योंकि कोई भी बात मन को बारंबार बताने पर ही वह मन में गहराई तक उतर जाती है, अन्तर्मन में दृढ़ हो जाती है और इसके पश्‍चात् ही मन उसके अनुसार क्रिया कर सकता है।

बारंबार क्रिया करना यानि सावधानी बरतने की कोशिश करना ।सावधानी का अर्थ है- दक्षता,और यह दक्षता अकसर बुद्धि के पास होती है परन्तु मन के पास नहीं होती। चंचल रहनेवाले इस मन को बुद्धि बारंबार सचेत करती रहती है और यह मन एक शरारती बच्चे की तरह बुद्धि की बात बहुत कम सुनता है।
हमें सोचना चाहिए कि मैं खुद को साईबाबा का भक्त कहता हूं , लेकिन क्या साईबाबा को सही मायने में मैंने अपनाया हैं क्या ? बाकी सब चींजे मेरी होतीं हैं जैसे की मेरा पती , मेरी पत्नी ,मेरे बच्चे , मेरे मां-बाप, मेरी गाडी , मेरी सायकिल, मेरी कार,मेरा बंगला - सबकुछ मेरा है , पर क्या साई ’मेरा’ है? सच में साईबाबा मेरी जिंदगी में है भी या है ही नहीं ? सच देखा जाए तो साईबाबा अपने असीम प्यार से अपनी करूणा, अपनी क्षमा की वजह से मेरे जीवन में प्रवेश तो कर चुके हैं ही । पर मेरे मन में , दिल-दिमाग में बैठी कुमती रूप कैकयी और संशय रूप से रहनेवाली मंथरा के कारण ही मैं खुद स्वंय ही मेरे साईराम को वनवास भेजता हूं , मेरे जीवन में साईनाथ मेरे अपने बनकर ’कर्ता’ बनकर आना चाहतें हैं पर मैं ही उन्हें साक्षी भाव में बैथा देता हूं ।

मैं कहीं जाना चाहता हूं और आगे का खतरा देखकर मेरे साईबाबा मुझे जाने देना नहीं चाहतें हैं , मेरे रास्ते में वे रूकावट डालतें हैं कभी स्पष्ट रूप से तो कभी अस्पष्ट तरीके से - पर मेरा अंहकार मुझे मेरे साईबाबा की बात मानने नहीं देता - जैसे कभी मैं साईबाबा की बात अनसुनी कहकर तात्या कोते पाटील की तरह साईबाबा ने मना करने पर भी बाजार चला जाता हूं या कभी साईबाबा ने एक जगह रूकने की बात बताने पर भी अनसुनी कर के मैं आमीर शक्कर बन के बाबा से छुपाकर चला जाता हूं । इससे मैं  साईबाबा को नहीं बल्कि अपने आप को धोखा दे रहा हूं ।
जब मैं अपने जीवने में साईबाबा को "कर्ता" बनाता हूं तो मेरा "मैं" मेरे साईं की कृपा से मिट्टी में मिल जाता है और मेरे साईनाथ मेरी झोली आनंद , सुख , शांती , तृप्ती, समाधान से भर देतें हैं ।

मनुष्य की विवेकबुद्धि तो अच्छी होती है, लेकिन उसका मन चंचल होता है।जब कभी भी मन बुद्धि की बात सुनता है तब मनुष्य का फ़ायदा ही होता है। इसीलिए यह सावधानता विशेष तौर पर मन को ही सिखाना होता है। जब तक यह मन थोड़ी-बहुत गलती करता है वहाँ तक तो ठीक है, परन्तु जब वह अपनी मर्यादा की सीमा को तोड़ वाहियात हरकतें करने लगता है तब वह उस मनुष्य का आत्मघात करता है और इसीलिए सावधानी बरतना अति आवश्यक होता है।

साईबाबा की कथा बारंबार सुनने से मेरे साईबाबा को मैं अपने जीवन में "कर्ता" बनाता हूं और फिर साईबाबा मुझे सावधानी बरतने सिखा देतें हैं - जैसे कि काका महाजनी जब साईबाबा से मिलने और कृष्ण जन्म साईबाबा के साथ मनाने का सोचकर आये थे तब साईबाबा ने उन्हें तुरत ही उसी दिन वापिस लोट जाने को कहा था और कृष्ण जन्म भी मनाने के लिए रूकने नहीं दिया था । अभी काका महाजनीजी ने साईबाबा की बात सावधानी से सुनी इसिलिए उनके नौकरी में आनेवाली मुसीबत से वो बच गए । अगर महाजनी के दिल में साईबाबा की तस्वीर ना उतर गयी होती थी तो उन्हें अपनी नौकरी पर मुसीबत आ सकतीं थी ।

हेमाडपंतजी ने खुद अपनी जिंदगी में अपने साईबाबा की  तस्वीर पहली भेंट से ही उतार दी थी , साईबाबा का शब्द बारंबार सुनने  की आदत अपने आप को डाल रखी थी इसिलिए होली के दिन सपने में संन्यासी रूप में दर्शन देकर बात बताने पर भी हेमाडपंतजी घर तस्वीर रूप में पधारे साईबाबा को अपने घर में ही नही, बल्कि अपने दिल के सिंहासन पर बिठा सकें , जहां पर अच्छे भक्त होने के बावजूद अंह भाव के घेरे में पडकर, कुमती कैकयी और संशयरूपी मंथरा के चंगुल में फंसकर देव मामलेदार साईबाबा को अपने घर पर खुद ही न्यौता देकर आए हुए साईबाबा को पहचान नहीं पाए थे ।

चलिए सब बिचार छोडकर सिर्फ अपने साई की तस्वीर अपने दिल में उतारने की कोशिश करतें हैं क्यों कि यही मेरे साईबाबा की चाहत हैं ।

ॐ साईराम

Sunday 2 April 2017

राम नामाची गोडी मला लाविली हो किती दयाळू गुरु माझी माउली हो....

चैत्र महिन्याची शुंभकरा नवरात्र सुरु झाली की चैत्र प्रतिपदेच्या पहिल्या गुढी पाडव्याच्या दिवसानंतर भारतीय जनमानसाला ओढ लागते ती रामनवमीची. राम नवमी म्हणजे राम जन्माचा उत्सव !
रामनामाशी आम्हा भारतीयांचा अतूट संबंध आहे. राम नाम म्हणजे नवचैतन्य, नवजीवन , नव संजीवनी ! राम म्हणजे सत्य-प्रेम आनंद ह्या त्रयीचा सुंदर पावन संगम ! राम म्हणजे सच्चिदानंद, पावित्र्य हेच प्रमाण ह्याची साक्ष पटविणारे मर्यादा-पुरुषार्थ जीवनी रूजविणारे एकमेवाद्वितीय परमात्म्याचे स्वरूप!

राम नामाची गोडी मला लाविली हो किती दयाळू गुरु माझी माउली हो....
स्टेजवर हा गजर जोरात रंगला होता आणि मनात विचार आला की
किती उचित आहे हा गजर, नाही? आम्ही सामान्य माणसे रोजच्या प्रापंचिक अडी-अडचणींनी, व्यथांनी एवढे गांजलेले असतो आणि तरीही हा काळाच्या कसोटीवर उतरलेला साधा-सोपा असा हा रामनामाच्या स्मरणाचा मार्ग चोखाळण्याची बुद्धी आम्हाला होत नाही. सहस्रनामाच्या तुलनेचे असणारे ताकदवान रामनाम आम्ही घेत नाही. आपण सदैव काम्य भक्तीनेच त्या परमात्म्याकडे वा सद्‍गुरुकडे सतत काही ना काही मागण्याच करीत राहतो आणि ’ह्यांना आपले खरे हित कशात आहे हे कसे कळत नाही’ ह्या विचाराने त्या दयाळू सद्गुरुमाऊलीचे अंत:करण तीळतीळ तुटत राहते.

पुढे हीच हरिनामाची, रामनामाची आवड सर्वसामान्य जीवांना लागण्यासाठी ही दयाळू गुरुमाऊली, सर्वसामान्यांना ओळखीची असलेल्या ’बँक’ संकल्पनेची नव्या रूपात ओळख करून देते - ’रामनाम बँके’च्या रूपात. १८ ऑगस्ट २००५ साली सद्गुरु डॉ. अनिरुद्ध जोशींनी ’अनिरुद्धाज् युनिव्हर्सल बँक ऑफ रामनाम’ ह्या संकल्पनेद्वारे कलिकाळावर मात करण्याचा, प्रारब्धाच्या तडाख्यातून सही-सलामत बाहेर काढण्याचा जणू रामबाण उपायच असलेले ’रामनामवही’रूपी एक शस्त्रच म्हणा, श्रद्धावानांच्या हाती सोपविले!


’रामनाम वही’ ही एक २२० पानांची वही आहे; ज्यात ’राम’, ’कृष्ण’, ’दत्तगुरु’, ’श्रीराम जय राम जय जय राम’, ’जय जय अनिरुद्ध हरि’ अशा वेगवेगळ्या नामांच्या द्वारे भक्ताला - सुखी, आनंदी करणाऱ्या सहजसोप्या नामस्मरणाची तोंडओळख करून दिली जाते.ह्या रामनामवहीच्या प्रत्येक पानावर भक्तिमार्गाचा अग्रणी श्रीरामभक्त हनुमंताचा वॉटरमार्क असतो, ज्यावर भक्त ही विविध नामे लिहीत असतो. ह्या हनुमंताच्या चित्राकृतीवर नाम लिहिण्यामागची खूप सुंदर कथाही सदगुरु डॉ. अनिरुद्ध जोशींनी विशद केली प्रवचनातून, ती म्हणजे - लंकेला जाण्यासाठी सेतू बांधताना हनुमंताने पाषाणांवर रामनाम लिहून त्या पाषाणांनी वानरसैनिकां करवी थेट ’श्रीरामेश्वर ते लंका’ असा अभेद्य सेतू समुद्रावर बांधून घेतला. सेतू बांधून पूर्ण झाल्यावर श्रीरामांनी स्वबंधू लक्ष्मणासह पहिले पाऊल टाकताच ’श्रीराम जय राम जय जय राम’ ह्या गर्जनेने वानरसैनिकांनी त्यांचे स्वागत केले. तेव्हा प्रसन्नचित्त श्रीरामांनी हा वर दिला होता की ’जो कुणी श्रीहनुमंताच्या रेखांकित चित्रावर रामनाम लिहील, त्याचे नाम दशगुणे वाढेल.’त्यामुळे साक्षात श्रीरामांनी दिलेल्या ह्या ग्वाहीचे स्मरण ठेवून रामनाम वहीची रचना तशीच केली गेली.
  
मनुष्याचे मन बहुतांश वेळा कुठलीही गोष्ट करू पाहते, ते केवळ फायद्यासाठीच. जसे व्यवहारात आपण पाहतोच की एखादा ’सेल’ लागला किंवा काही सवलती मिळणार असतील, तर ग्राहकराजा कशी धाव घेतो ते! मग ह्याचेही भान राखूनच ’रामनामवही लेखनाचे’ लाभ - श्रध्दावानांना समजावून दिले गेले. स्वत:च्या वैयक्तिक फायद्याबरोबरच रामनाम वही लिहीणार्‍या  श्रध्दावानांच्या गांठी दुहेरी पुण्य़ कसे जॊडले जाते ह्याची जाणीव करून देऊन.

ते म्हणजे रामनाम वहीचा अजून एक महत्त्वाचा फायदा असा की ही वही भक्त स्वत:साठीही लिहू शकतो किंवा दुसऱ्यासाठीही लिहू शकतो. आपल्या आप्तांच्या वाढदिवस किंवा तत्सम महत्त्वाच्या दिवशी त्या आप्ताच्या नावाने रामनामबँकेत जमा करू शकतो. उदा. आजी, आजोबा आपल्या नातवासाठी लिहू शकतात, मुले आपल्या आईवडिलांकरता-भावाबहिणीकरिता लिहू शकतात. तसेच एखाद्या आजारी आप्ताच्या किंवा दिवंगत आप्ताच्या नावाने लिहूनही जमा करू शकतात. म्हणजे कोणीही कोणाकरिताही ही वही लिहू शकतो. ह्यामुळे अमूल्य लाभ मिळाल्याचे अनेक भक्तांचे अनुभव आहेत - वही लिहिणाऱ्या व्यक्तीलाही आणि ज्याच्या नावे वही लिहिली गेली त्या व्यक्तीलाही!!!
  
रामनाम वही लिहिण्याचा महिमा बघायचा झाला तर एक उदाहरण वाचनात आलेले आठवले ते नमूद करावेसे वाटते -
’कृपासिंधु’ ह्या मराठी मासिकाच्या नोव्हेंबर २०१२ च्या अंकात आलेला रेखावीरा जोशी ह्या स्त्री श्रद्धावानाचा बोलका अनुभव ह्याविषयी आपल्याला खूप काही सांगून जातो!

वाघोटण सिंधुदुर्ग येथे राहणाऱ्या रेखावीरा जोशी - ’रामनाम वहीनेच तारले’ ह्या आपल्या अनुभवात सांगतात की १३ मार्च २०१२ ला रात्री ९.३० च्या सुमारास त्यांच्या आजोबांची अचानक डाव्या हाताची व पायाची हालचाल होईनाशी झाली होती. डॉक्टरने सीटीस्कॅन करून संभाव्य अटॅकची शक्यता सांगून त्वरित उपाय केले आणि चौथ्या दिवशी आजोबा सुखरूप घरी आले. पण ही गोष्ट घडायच्या साधारण एक महिना अगोदर ह्या स्त्री भक्ताने १८ फेब्रुवारी २०१२ ला आजोबांच्या नावे एक रामनाम वही लिहून रामनाम बँकेत जमा केली होती. येथे त्या श्रद्धावान स्त्रीचा हा दृढ भाव आहे की ही रामनाम वही लिहिल्यानेच तिच्या आजोबांना रामनामाने तारले.

तसे पाहता ह्या ’पॉवरफुल’ रामनामाची गोडी जनसामान्यांना लावण्यासाठी सद्गुरुतत्त्व हे  युगानुयुगे झटत आलेले आहे असे आढळते .सद्गुरु नारदांकडून मिळालेल्या रामनामाच्या दीक्षेने ऋषिश्रेष्ठ वाल्मीकिंनी भक्तिमार्गावर एवधा मोठा पल्ला गाठला की प्रभू श्रीरामांच्या जन्माआधीच "रामायण" हे महान काव्य रचून रामचरित्र लिहिते झाले.

कालांतराने समाजाला रामनामाचे विस्मरण होते आहे असे दिसताच, साक्षात भगवान शिवशंकरांनी बुधकौशिक ऋषींना स्वप्नात दृष्टांत देऊन श्रीरामरक्षा रचवून घेतली.

संत रामदास स्वामींनीही गावोगाव फिरून श्रीरामनामाची गोडी जनमानसांत रुजविली. संत तुलसीदासांनीही ’श्रीरामचरितमानस’ ही रचना केली. हा एवढा अट्टाहास करण्याचे कारण ह्या सर्व संतांनी रामनामाचे महत्त्व जाणले होते.
  
रामनामाने पतित पावन होतात, रामनामाचा लाभ गहन - खूप मोठा आहे, रामनामाच्या आवर्तनाने तुम्हाला जन्ममरणांचे धरणे सोडवता येईल. ’एका रामनामाचे हे कोटींगुणे लाभ माझ्या लेकरांना लाभोत’ ह्या सद्गुरु डॉ. अनिरुद्ध जोशींच्या कळवळ्यापोटीच श्रद्धावानांच्या  जीवनी रामनामवही अवतरली.
 
सदगुरु हा  नेहमी साध्या सोप्या प्रकाराने भक्तांना प्रपंच न सोडताही परमार्थ करायला शिकवतात तो असा. म्हणूनच एरवी ज्यांनी कदाचित रामनाम घ्यायला कंटाळा केला असता, असे असंख्य श्रध्दावान भक्त आज न कंटाळता रामनामवही लिहीताना आढळतात . ते प्रारब्धाच्या तडाख्यांना न घाबरता तोंड देतात, संकटांना न डगमगता सामोरे जातात ते ह्याच रामनाम वहीच्या ताकदीने... फावला वेळ असो की प्रवास असो, सच्चा श्रद्धावान हा हाती रामनाम वही घेतोच. किती सहज सोपा मार्ग त्या दयाळू गुरुमाऊलीने आम्हाला दाखवला.

म्हणूनच तर गजरात बेधुंद होऊन श्रद्धावानांचा नामघोष दुमदुमत होता ----
    "रामनामाची गोडी मला लाविली हो, किती दयाळू गुरु माझी माऊली हो"

ही कृतज्ञता व्यक्त होत होती श्रद्धावानांची आपल्या सद्गुरुपोटीची.

देवाने माणसाला चांगल्या घरी जन्म दिला, शिक्षण दिले, नोकरी-धंदा देऊन पोटापाण्याची व्यवस्थित सोय लावली, लग्न लावून संसार थाटून दिला. हे सगळे जर देवाने आपल्याला तरुण वयात दिले आहे, तर त्याच देवाचे आपण आभारही तरुण वयातच मागू. ही कृतज्ञता व्यक्त करणे म्हणजेच आपण देवाच्या चरणीं खर्‍या अर्थानें नतमस्तक होणे आणि हीच आहे ’अंबज्ञता’, जी देवाला अत्यंत प्रिय आहे - भक्ताचा भोळाभाबडा कृतज्ञतेचा भाव.

चला तर मग....आपणही  सारे रामनाम वही लिहून ही अंबज्ञता ’त्या’ रामाच्या आणि त्याच्या परमप्रिय आदिमातेच्या म्हणजेच रामनामाला तारक मंत्राचा वर देणा‍र्‍या श्रीरामवरदायिनीच्या चरणी वाहूया आणि ’अंबज्ञ’ होऊया...

सूचना: हा लेख पहिल्यांदा २०१४ मध्ये रामनवमीला http://ramnavamiutsav.aniruddhabapu.in/2014/04/aniruddhasuniversalbankoframanam.html ह्या बेवसाईटवर प्रसिध्द झाला होता. 

प्रत्यक्ष मित्र - Pratyaksha Mitra

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