Friday, 31 March 2017

मेरे साई के लिए हमारे प्रारब्ध भोगों का नाश - " भेद ये गहरा बात जरा सी " ।


ॐ कृपासिंधु श्रीसाईनाथाय नम: ।

आज मशहूर गीतकार शैलेंद्रजी का एक गाना सुन रही थी - उसमें से एक पंक्ती दिल को बहुत ही छू जाती है कि
मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी - भेद ये गहरा बात जरा सी .....  
कितना सच है यह की नदिया जो हम इंसानो को बारह मास पानी देकर हमारी प्यास बुझाती है , पर वो जब तक सागर से ना मिल जाए , तब तक वह प्यासी ही रहती है ।  इस बात को सोचते  हुए मुझे मेरे साई कीं याद आ गयी कि इंसान के लिए कोई बात कितनी भी असंभव हो , पर मेरे साई के लिए बो बात "जरा सी " होती है, चुटकी बजाने जैसे आसान होती है, क्यों कि मेरे साई के पास नामुमकीन , असंभव इन शब्दों के लिए कोई जगह है ही नहीं , पर ये तभी मुनासिब होता है जब मैं साई को "मेरा" मानूं ।       

श्रीसाईसच्चरित के दूसरे अध्याय में हेमाडपंतजी बडे प्यार से कहतें हैं कि मेरे साई की कथाओं को सुनके हर इंसान की भूख प्यास मिट जाती है , उसे दूसरे कोई भी सुख का कोई मोल नहीं लगता और वह अपनी जिंदगी में पूरी तरह से  संतुष्ट हो जाता है , उसका अंतर्मन भी शांती, तृप्ती और समाधान का एहसास पाता है क्यों कि मेरे साई उनकी कथा सुननेवाले अपने भक्त को जिंदगी में सावधानी बर्तना सिखा देंतें हैं ।

अभी हमें लगेगा इस में कौनसी कठीन बात हैं ? हम तो अक्सर अपना खुद का खयाल  रखतें ही है, सावधानी भी बरततें हैं - अपनी सेहत के बारे में , पढाई के बारे में, नौकरी के बारे में , कारोबार के बारे में, पैसों के बारे में , फिर यह साईबाबा और कौनसी नयी सावधानी बर्ताने सिखानेवाले है? सवाल तो अपनी जगह पर सही है ऐसे लगेगा । अब मेरे साई जिंदगी में सावधानी बरताने  कैसे सिखातें हैं - यह जानने के लिए ,इस के पिछे छुपा राज जानने के लिए हमे कुछ और चीजों की तरफ भी ध्यान देना पडेगा  ।
हमें अपने जिंदगी में आनेवाली मुसीबतें , कठिनाईयां क्यों आती है , यह देखना जरूरी है । हर एक मनुष्य के मन में आहार, निद्रा, भय एवं मैथुन यह चार केंद्र होते हैं। इन चारों केन्द्रों की दिशा एवं ताकत हर किसी के पूर्वजन्म के अपने कर्म के अनुसार भिन्न-भिन्न होती हैं। पूर्वजन्म से इस जन्म में लिंगदेह के साथ आने वाला ‘प्रारब्ध’ यानी इन चारों केन्द्रों की जन्मजात स्थिति।
हेमाडपंतजी हमें इस प्रारब्ध का अर्थ  अध्याय ४७ में समझातें हैं ।
हम श्रीसाईसच्चरित की ४७ वे अध्याय में साँप और मेंढक की कथा पढतें हैं - यहां पर वो मेंढक याने पूर्वजन्म का चनबसाप्पा और साँप याने वीरभद्राप्पा रहते हैं , पूर्वजन्म याने पिछले जन्म के बैर के कारण वीरभद्राप्पा के खौंफ की वजह से चनबसाप्पा के मन में इतना भय पैदा होता है कि उसी भय से उसकी मौत हो जाती है । अगले जन्म में भी मेंढक बनने के बावजूद भी वीरभद्राप्पा के प्रती भय उसके मन से मिटता नहीं हैं ।
तो यह हो गया प्रारब्ध से उत्पन्न "भय " - अब जब की हमें हमारा पिछला जन्म ही मालूम नहीं होता , तो हम इस भय से सावधानी कैसे बरतें ? याने हमें हमारे प्रारब्ध से जुझने के लिए हरिकृपा की आवश्यकता होती है क्यों कि एक हरि याने परमात्मा , भगवान ही हमें ऐसी अंजान चींजों से उबार सकता है । इसिलिए संत एकनाथ महाराज जी हमें बतातें हैं - एका जनार्दनी भोग प्रारब्ध का। हरिकृपा से उसका नाश है ही।  

भले ही मुझे मेरा पिछला जन्म मालूम ना हो पर मेरे साई मेरे हर जन्म से वाकिफ है । इसिलिए वो साई ही बता सकतें है अपने चहिते शामा को कि पिछले बहतर जन्मों में क्या मैंने तुम्हें कभी छुआ था ? अब यह साई ही है जो मेरे पास हरि की कृपा ला सकतें हैं क्यों कि हम माने या ना माने पर वो ही तो हरि है, असल में मानव रूप में आए हुए हरि है, भगवान है ।

अब मेरे साई इस प्रारब्ध का नाश अर्थात इन चारों केन्द्रों की आज की स्थिति की सभी कमियों का, न्यूनता का नाश और इन चारों केन्द्रों का उचित समर्थकेंद्र में परिवर्तन अपनी सहज लीला द्वारा करतें हैं । जब हम साई को अपना मान के अपनी जिंदगी की बागडोर उनके हाथ में थमा देतें हैं और उनकी कथा सुनने लगते हैं तब "मेरे " साई मुझे जिंदगी के हर मोड पर सावधानी बर्ताना सिखातें हैं ।

प्रारब्ध निर्माण होने के लिए वजह होतें हैं - चार केंद्र - आहार, निद्रा, भय एवं मैथुन ।

अब साई इन केंद्रों मे हुई विकृती यानि खामी या न्यूनता को हटाने के लिए , उसका नाश करने के लिए सावधानी बरतना हमें कैसे सिखातें हैं इस के बारे में मैंने एक आसान सा लेख हाल ही में पढा - जहां लेखक महाशय ने साईबाबा की कथा सुनने पर हमारे साईबाबा ये गहरे भेदवाली भात को जरा सी बात बनाकर कैसे हम भक्तों पर अपनी कृपा बनायें रखतें हैं इसका विवरण किया था -
http://www.newscast-pratyaksha.com/hindi/shree-sai-satcharitra-adhyay2-part13/
यह लेख पढकर मेरे साई की जरा सी दिखनेवाली बात के पिछे कितना गहरा भेद छुपा है , यह जानकर साईबाबा के प्रति बहुत जादा प्यार उमड आया और मेरे साई की रहम नजर का अर्थ समझने में आसानी हुई । 

१. आहार केंद्र- यह सिर्फ भूख का केंद्र नहीं है जो खाने से मिटती है । अन्न की ही तरह अन्य सभी प्रकार की भूख भी इसी आहार केंद्र पर निर्भर रहती हैं। लैंगिक भूख, कीर्ति की भूख, पैसे की भूख, अधिकार की भूख, सत्ता की भूख इस तरह की सभी प्रकार की भूख इसी केन्द्र पर निर्भर होती है। जितने प्रमाण में यह केन्द्र अनुचित पद्धति से कार्य करता है, उतने ही प्रमाण में झूठी भूख का प्रमाण बढ़ जाता है।
अध्याय २५ में दामूअण्णा कासार जी कथा में हम देखतें है कि उनके पास तो काफी धन है । किंतु अपने दोस्त के कहने पर उन्हें जादा धन (पैसा ) कमाने की भूख लग जाती है । अभी साई जानतें हैं कि आगे चलकर कपस के कारोबार में दामू अण्णा अगर दोस्त के कहने से शामिल हो जातें हैं , तो उनका भी दिवाला निकल सकता है । इसिलिए साईबाबा दामूअण्णा को इस झुठी पैसे की भूख से बचने के लिए सावधानी बरतने के लिए आगा कर देतें हैं खत के जरिए । फिर भी दामू अण्णा जी की पैसे की झूठी भूख उन्हें शांती से बैठने नहीं देती और वो साईबाबा को मिलने शिरडी पहुंच जातें है और बाबा को धंदे में हुए मुनाफे का हिस्सा देने की  बात अपने मन में कहतें हैं । यहां भी साई दामू अण्णा ने किए हुए पैसे का लालच ना रखकर दामू अण्णा को सावधानी कैसे बरतनी है यही पाठ पढातें हैं क्यों कि दामू अण्णा ने साईबाबा को अपना माना था, अपने गुरु मानें थे।

२. निद्रा केंद्र - निद्रा केन्द्र यह केवल नींद का ही केन्द्र न होकर निद्रा केन्द्र यह ‘तृप्ति’ का केन्द्र है । इस केन्द्र की क्षमता पर ही जिस तरह शांत नींद निर्भर करती है, उसी तरह उचित आहार से तृप्ति, लालच, अतृप्ति में मर्यादा, वासनाओं के प्रति नीति का बंधन ये बातें भी निर्भर करती हैं। जिसका यह ‘तृप्ति’ केन्द्र (निद्रा केन्द्र) कम विकसित होता है वह जीव सदैव अशांत, अतृप्त रहता है। साईकथाओं द्वारा हमें प्राप्त होने वाला ‘समाधान’ (संतुष्टता) यह गुण हमारे इस निद्रा केन्द्र को पूर्ण विकसित करके हमें इस बात का अहसास करवाता है कि सच्ची तृप्ति एवं शांति किस में हैं ।
अध्याय ३५ में हम धरमसी जेठाभाई ठक्कर की कथा में पढतें है कि घर में बहुत सारा धन और सारे सुख के साधन होने के बावजूद धरमसी किस तरह झूठी गलत बातों में उलझा रहता है और अपनी जिंदगीं में शांती, तृप्ती , समाधान से परे रहता है । साईबाबा को मिलने के बाद ही साईबाबा उसे जिंदगी के इस नींद केंद्र की सावधानी क्या है इस की जानकारी देकर उस की जिंदगी की खुशियाली लौटा देतें हैं ।

३. भय केंद्र - भय केन्द्र यह है मनुष्य को उसके स्वयं की ‘कमजोरी’ की, उसकी क्षमता की, मर्यादा का एहसास करवाने वाला केन्द्र। संक्षेप में कहें तो मुझे अपनी हैसियत का एहसास करवाने के लिये यह भय केन्द्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह भय केन्द्र परमेश्‍वर ने मनुष्य को डराने अथवा सताने के लिये नहीं बनाया है, बल्कि मनुष्य अपनी मर्यादित क्षमता का सदैव ध्यान रख सके इसीलिये बनाया है। जिस समय मैं घमंड में आकर परमात्मा के धाक को न मानकर अपनी इच्छानुसार स्वैर व्यवहार करने लगता हूँ और अपनी ताकत का उपयोग दूसरों को तकलीफ़ देने के लिये करने लगता हूँ, तब मेरा यह भय केन्द्र विकृत हो चुका होता है।
अध्याय २२ में अमीर शक्कर की कथा हमें दिखाती है कि साई की बात न मानना या साईबाबा के वचनों का धाक न मानकर अपने घमंड में चूर होकर अपनी इच्छानुसार स्वैर वर्तन , व्यवहार करने पर कैसे मुईबतों के पहाड मुझ पर टूट पड सकतें हैं ।  किसी प्यासे को पानी पिलाने जैसा पुण्य कर्म भी मेरे लिए कैसी अनसोची मुसीबत पैदा कर सकता है । इसिलिए भय केंद्र से साईबाबा हमें डरातें नहीं बल्कि हमें सावधान करतें हैं कि कौनसी चीजों से हमें खतरा हो सकता है, हमारे जीवन में भय पैदा ना हो इसके लिए मेरे साईबाबा ही तत्पर है और वो ही मुझे सावधान करतें हैं ।

४. मैथुन केंद्र- मैथुन केन्द्र अर्थात् केवल लैंगिक केन्द्र नहीं बल्कि मानवी इच्छा भी है, अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिये लगने वाले सामर्थ्य को पूरा करने वाला केन्द्र। कार्य सिद्ध करने की क्षमता एवं कौशल्य इस मैथुन केन्द्र पर ही आधारित होते है।

हम जब किसी कार्य को हाथ में लेते हैं, तब उसे पूरा करने के लिये क्षमता एवं सामर्थ्य साथ ही कौशल्य भी ज़रूरी होता है। इसके लिये उनकी पूर्ति होते रहना, परमेश्‍वरी उर्जा का अखंडित रूप में प्रवाहित होते रहना ज़रूरी होता है।

साईकथा सुनने से हरि की मेरे भगवान की परमेश्‍वरी ऊर्जा को हमारे जीवन में मेरे साईनाथ प्रवाहित कराते रहते हैं। साईकथाओं के आश्रय में रहनेवाले भक्त को परमेश्‍वरी ऊर्जा की कभी भी कमी नहीं पड़ती और इससे उसके मैथुन केन्द्र का कार्य भी सदैव उचित रूप में होते रहता है।

इस तरह साईकथा यानी हरिकृपा हमारे मन के इन चारों केन्द्रों को उचित दिशा प्रदान करती है अर्थात् हमारे प्रारब्धभोग का नाश करती है। हमारा प्रारब्ध चाहे कितना भी बुरा क्यों न हो यानी इन चार केन्द्रों की स्थिति कैसी भी क्यों न हो, मग़र फ़िर भी साक्षात् हरिकृपा होनेवाली साईकथाओं के द्वारा हम अपने प्रारब्धभोग को दूर कर अपना जीवनविकास ज़रूर कर सकते हैं, इसी बात की गवाही हेमाडपंत हमें दे रहे हैं। 

ॐ साई श्री साई जय जय साईराम ।

Wednesday, 29 March 2017

जिथे स्वामी पाय तिथे न्यून काय |

 “स्वामी समर्थ तारक मंत्र”
नि:शंक हो | निर्भय हो मना रे | प्रचंड स्वामी बळ पाठीशी रे ||
अतर्क्य अवधूत हे स्मरण गामी | अशक्य ही शक्य करतील स्वामी || १ ||
जिथे स्वामी पाय तिथे न्यून काय | स्वयें भक्त प्रारब्ध घडवी ही माय ||
आज्ञेविना काळ ना नेई त्याला | परलोकी ही ना भीती तयाला || २ ||
उगाची भीतोसी भय हे पळू दे | जवळी उभी स्वामी शक्ती कळू दे ||
जगी जन्ममृत्यू असे खेळ ज्याचा | नको घाबरू तू असे बाळ त्याचा || ३ ||
खरा होई जागा | श्रद्धेसहित | कसा होशी त्याविणा | तू स्वामीभक्त ||
कितीदा दिला बोल त्यांनीच हात | नको डगमगू | स्वामी देतील साथ || ४ ||
विभूती, नमन, नामध्यानादी, तीर्थ स्वामीच या पंचप्राणामृतात ||
हे तीर्थ घे आठवी रे प्रचिती |न सोडी कदा स्वामी जया घेई हाती || ५ ||


सदगुरु स्वामीसमर्थांचा तारक मंत्र ऐकून अगदी मन शांत होऊन जाते, मनाला एक असीम शांती , तृप्ती, समाधान मिळते. माझ्या पाठीशी माझे आजोबा, माझे माय-बाप , माझे बंधू-सखा अशी सर्वच नाती समर्थपणे निभावून नेणारे माझे स्वामी समर्थ आहेतच , एक भक्कम आधार, प्रचंड पाठबळ, कधीही दगा न देणारा , संकट असो वा काळमत्यु वा अपमृत्यु असो, कधीही आपल्या छत्र छायेपासून आम्हा लेकरांना वंचित न करणारा असा आमचा हक्काचा आश्रयनिधान , आमच्या जीवीचा विसावा !

अक्कलकोटचे श्री स्वामी समर्थ (प्रकटकाल : इ.स. १८५६-१८७८)

मराठी कॅलेंडर मध्ये आज श्रीअक्कलकोट स्वामी महाराज प्रकट दिन अशी नोंद आहे. स्वामींच्या आरतीत आपण गातो -
नृसिंहसरस्वती अवतारा संपविले
कर्दळीवनात जाऊनि तपाचरण केले
नवरुपां धारण करूनि प्रगट पुन्हा झाले 
वास्तविक पाहता श्रीगुरु दत्तात्रेयांनी आपला नृसिंह अवतार संपवून कर्दळीवनात जाऊन तप केले होते आणि नंतर इसवी सन १८५६ मध्ये श्रीस्वामी समर्थ  ह्या नव्या रूपाला धारण करून ते पुनश्च प्रकटले होते तो हा आजचा परम पावन दिवस !
पुढे इसवी सन १८७८ मध्ये स्वामींनी समाधिस्त होऊन आपला सगुण साकार अवतार संपविला असे भासवले, परंतु आजतागायत प्रत्यक्षात स्वामी आपल्या भक्तांच्या पाठीशी सतत उभे राहून, भक्तांना "हम गया नही जिंदा है " याच आपल्या अभिवचनाची प्रचिती सातत्याने  देत आहेत.
म्हणजेच सदगुरु हा त्रिकालाबाधित असतो हेच परम सत्य आहे की ज्याला ना जन्म असतो ना मरण असते. "तो" एकमेवाद्वितीय आहे , जो अनादि -अनंत आहे. आणि म्हणूनच देहाची मर्यादीत परिमाणे आपण त्यांना लाऊच शकत नाही मग भले सदगुरु हा सगुण साकार बनून भूतलावर मानवी देहात वावरत असो वा व्यावहारीक पातळीवर समाधि घेऊन ब्रम्हीभूत झालेला असो वा  देहातीत अवस्थेत असो. "तो" सदैव असतोच आपल्याच  सन्निध , आपल्या पाठीशी !
त्यामुळेच स्वामींचा तारक मंत्र पदोपदी ह्याचीच ग्वाही देतो की हो, मी तुझ्या पाठीशी सदैव उभाच आहे, 

नि:शंक हो | निर्भय हो मना रे | प्रचंड स्वामी बळ पाठीशी रे ||
स्वामी समर्थ आजोबांच्या चरणी भक्ती करताना  नि:शंक मनाने , निर्भय मनाने कसे स्वत:ला झोकून द्यायचे ह्याचे उदाहरण म्हणजे स्वामींचा शिष्य श्रीपादभट ! श्रीगोपाळबुवा केळकर लिखीत अक्कलकोटनिवासी श्री स्वामी समर्थ ह्या बखरीत २५१ व्या कथेत स्वामींचा शब्द ऐकून श्रीपादभट मनांत कोणतीही शंका -कुशंका न घेता , अगदी स्वत:च्या प्राणांची सुध्दा पर्वा न करता भर पुराच्या पाण्यात उडी घेतात, ते ह्याच अत्युच्च अढळ विश्वासापोटी की माझ्या पाठीशी माझे स्वामी उभे आहेतच आणि मला सांगतात की "भिऊ नको मी तुझ्या पाठीशी उभा आहे."
बखरकार केळकर बुवा सांगतात की एकदां आश्विन महीन्यांत  श्रीसमर्थांची स्वारी चंद्रभागेच्या तीरीं मणूर क्षेत्री गेली होती, जेथे पाऊस पडल्यामुळे भीमा नदीस मोठा पूर आला होता. स्वामी समर्थ आजोबांच्या सोबत चोळप्पा, श्रीपादभट व इतर बरेच सेवेकरी होते. तेथें भोजनाची कांहीच तयारी नसल्याने चोळप्पाने स्वामींची प्रार्थना करून काय करावे अशी विचारणा केली. स्वामी समर्थांना नदीच्या पलीकडे जावयाचे होतेआणि नौकाही नदीच्या पलीकडच्या तीरी होती, तेव्हा स्वामींनी नौका पलीकडे जाऊन कोण आणतो ? असे विचारले. चोळप्पांनी सांगाडी भोपळ्यांशिवाय जाता येणार नाही आणि नौकेशिवाय पुरात उडी घालणे म्हणजे प्राण देणे असे आपले मत मांडले. स्वामींनी हसून उत्तर दिले की " अरे आमचा लठ्ठेश्वर पंडित जाईल, तर नौका अवश्य घेऊन येईल." श्रीपादभटास स्वामी आजोबा ’लठ्ठ्या ’ म्हणून हांक मारीत. हें स्वामींच्या मुखीचे वचन श्रीपादभटाने ऐकून, गुरुचा शब्द प्रमाण मानून अंगावरची वस्त्रें काढून , पंचा नेसून समर्थ नामाचा  जयजयकार करीत भयंकर पुरात उडी मारली. सर्व सेवेकरी घाबरून जाऊन समर्थांना श्रीपादभटाचे रक्षण करा म्हणून विनवू लागली .पण स्वामी म्हणाले," मरतो कशाने ? आतां नौका घेऊन येईल पहा ! " आणि श्रीपादभटांनी समर्थांचे नामस्मरण करीत पुरातून पलीकडे पोहत जाऊन नौका आणली व आपल्या सदगुरु स्वामींना पलीकडे थोरल्या मणुरास नेले. खरोखरी स्वामींच्या तारकमंत्राची येथे जिवंत प्रचिती मिळते की भक्तानें नि:शंक कसे व्हावे, निर्भय कसे असावे आणि आपला भार "त्या" एकाच्याच चरणीं समर्पून कसे जगावे. "त्या"ला माझी काळजी आहेच ना, माझ्याही पेक्षा जास्तच !मग मला नि:शंक आणि निर्भय होता आलेच पाहिजे.
     
अतर्क्य अवधूत हे स्मरण गामी | अशक्य ही शक्य करतील स्वामी ||
बखरीमध्ये २१९व्या कथेत आपण वाचतो की शके १७७५ सालीं श्रीस्वामी समर्थ श्रावण महीन्यांत पंढरपुरास गेले आणि तेथून पुढे मोहोळ ह्या गावी गेले होते. तेथे एका सत्त्व संपन्न ब्राम्हणाचा मुलगा अकस्मात वायु होऊन मरण पावला होता. त्या ब्राम्हणाने समर्थ बसलेल्या गुहेच्या बाहेर "देवा धाव आता !" म्हणून गडबडा लोळून प्रार्थना करू लागला असता ,त्या ब्राम्हणाची करूणापर हांक ऐकून स्वामी समाधि सोडून धांवत गुहेच्या बाहेर आले व ब्राम्हणास हातास धरून म्हणालें ," भटजी , तुमच्या मुलास नीट घोड्यावर बसवून समुद्रतीराकडे पाठवा ! आणि खरोखरी तो मृत मुलगा चक्क उठून बसला !
श्री समर्थांना कोणतीच गोष्ट अशक्य नाही , अशक्य वाटणार्‍या गोष्टी , अतर्क्य गोष्टी सुध्दा स्वामी कृपेने सहज शक्य होतात.

२११व्या कथेंत ५वर्षाच्या कुणब्याच्या मुलीचा स्वामींनी मुलगा केला होता. लहानपणी ही कुणब्याची मुलगी स्वामी बसत त्या डोंगरावर आपली गुरे चरायला घेऊन जाई आणि आपल्या घरून आणलेली भाकरी स्वामींना प्रेमाने भरवीत असे. पुढे पैशाच्या लोभाने तिच्या वडिलांनी कुणब्याने तिला मुलाचा वेष करून एका निपुत्रीक असलेल्या सावकाराला विकले. त्यावेळेच्या प्रथेप्रमाणे सावकाराने आपल्या ह्या दत्तक मुलाचे लग्न ठरविले आणि लग्नात वधूपक्षाची मंड्ळी हळद लावताना कुणब्याचे हे बिंग उघडकीस आले. सावकाराने आपल्या फसवणूकीबद्दल राजाकडे फिर्याद केली आणि राजाने चक्क दोषी मानून ह्या ५ वर्षाच्या मुलीला ठारमारण्याचे फर्मान सोडले. पुढे मारेकर्‍यांनी त्या मुलीला मारायला जंगलात नेले असता, शेवटची इच्छा म्हणून ती लहानगी मुलगी स्वामी आजोबांकडे धाव घेते आणि स्वामी चक्क मुलीचे प्राण वाचवायला मुलीचा मुलगा करतात. स्वामी तारी त्याला  कोण मारी ?
प्रत्यक्ष प्रत्यंतर - अतर्क्य अवधूत हे स्मरण गामी | अशक्य ही शक्य करतील स्वामी ||

जिथे स्वामी पाय तिथे न्यून काय | स्वयें भक्त प्रारब्ध घडवी ही माय ||
२०९ व्या कथेंत जन्मांध असलेल्या द्वारकेतील सूरदासास केवळ स्वहस्तें डोळ्यांस स्पर्श करून दिव्य दृष्टी दिली आणि श्रीकृष्ण स्वरूपात दर्शन दिले तर
२१० व्या कथेंत हनुमानधारी येथील एका पांगळ्याला पाय दिले,
भक्ताचे प्रारब्ध स्वत:च्या हाताने स्वामी घडवीत आणि आपल्या भक्तांना कसलेही न्यून भासू देत नसत, कसलीही उणीव भासू देत नसत वा कमी पडू देत नसत ह्याचीच ही प्रचिती !

आज्ञेविना काळ ना नेई त्याला | परलोकी ही ना भीती तयाला ||
बखरीमध्ये १२७व्या कथेत - स्वामी आजोबांनी बाबसाहेब जाधव ह्या भक्ताचे मरण कसे परतविले हे वाचनात येते. आजोबा त्या भक्ताला कुंभार म्हणून हांका मारीत. त्यांना स्वामी म्हणाले कुंभार तुझे नावाची चिठ्ठी आली आहे. तेव्हा ह्या भक्ताने श्रींचे चरण घट्ट धरून श्रींची सेवा मनासारखी घडलेली नाही . करिता समर्थांनी कृपा करून तूर्त निरोप देऊ नये म्हणून प्रार्थना करताच करुणाघन स्वामींनी बाबासाहेबांचे मरण रोखले व  एका जंगी बैलावर "जा बैलावर " म्हणून सोडले. आज्ञेविना काळ ना नेई त्याला |
बखरी मध्ये १२९व्या कथेत - स्वामी समर्थांनी खेडेगावातील एका स्त्रीच्या मेलेल्या मुलास कसे प्राणदान दिले होते हे आढळते. ह्यावरून स्वामींच्या आज्ञेविना काळ ही माणसाचे प्राण हरण करायला धजत नसे वा परलोकात गेलेल्या माणसालाही कसलीच भीती उरत नसल्याचे सिध्द होते. त्यामुळे आपोआप मनाला व बुध्दीलाही पटते की

उगाची भीतोसी भय हे पळू दे | जवळी उभी स्वामी शक्ती कळू दे ||
जगी जन्ममृत्यू असे खेळ ज्याचा | नको घाबरू तू असे बाळ त्याचा ||
आपण माणसे जीवनातील लहान -सहान गोष्टींना भितो. पण तेच स्वामींवर विश्वास ठेवला तर सर्वकाही उचितच घडते. . १८६ व्या कथेंत लक्ष्मण कोळ्याचें जहाज भर समुद्रांत मोठें तुफान येऊन बुडू लागतें , तेव्हा तो "अक्कल्कोटनिवासिनी आई , धांव "! असे म्हणून आर्ततेने हांक मारतो स्वामींना , तेव्हा स्वामी चोळप्पाच्या घरी पलंगावर बसले असतां एकदम ताडकन उठून उजवा हात खालीं करून वर उचलतात आणि तोडाने हूं हूं हूं असें बोलतात आणि पुन्हा पलंगावर बसतात. कांही वेळाने स्वामींच्या हातांतून पाणी पडूं लागते जे खारट असलयाचे सेवेकर्‍यांना लक्षात येते. आणि इकडे समुद्रांत जहाज एकदम कचका मारून वर उचलले जाते, सोसाट्याचा वारा एकदम  कमी होतो आणि लक्ष्मण कोळी सुखरूप वाचतो. स्वामी जणू भर समुद्रांतही जवळींच उभे असतात व आपल्या बाळाला जन्म मृत्युच्या खेळांतून वाचवितात. जणू स्वामी आपल्या बाळांना प्रत्यक्ष ग्वाही देतात - जगी जन्ममृत्यू असे खेळ ज्याचा | नको घाबरू तू असे बाळ त्याचा ||


खरा होई जागा | श्रद्धेसहित | कसा होशी त्याविणा | तू स्वामीभक्त ||
२९ व्या कथेंत श्रीमंत मालोजीराजे हे गुरुप्रतिपदेच्या उत्सवास दर वर्षी गाणगापुरास जाऊन त्रिरात्र तेथे राहून ब्राम्हण भोजन घालून परत येत. एकदा रात्री नृसिंह सरस्वती स्वप्नांत येऊन बोलतात की "मी तुझें गांवी आलों असून तू येथे कां येतोस ? स्वप्न पाहून राजा जागा झाला व दुसरें दिवशी अक्कल्कोटास परत आला. श्रीस्वामी दत्तवतार असल्याची खात्री पटून पुढे राजाने श्रींच्या पादुका घेऊन गंधलेपन करून त्या आपल्या देवांत पूजेस ठेवल्या व पुंढे गुरुप्रतिपदेचा उत्सव राजा अक्कलकोटासच करू लागला - हे असते खर्‍या श्रध्देसहीत जागें होणे. कारण त्याशिवाय कोणी स्वामीभक्त होऊच शकत नाही.

कितीदा दिला बोल त्यांनीच हात | नको डगमगू | स्वामी देतील साथ ||
एकदा स्वामींच्या ठायी अनन्य भाव जडला, अनन्य शरणागती आली की माणसाला सतत जाणवते की स्वामी माझी साथ निरंतर करीतच आहेत, माझ्या अडीअड्चणींतून, संकटांतून तेच मला हात देऊन बाहेर काढतात अगदी सहीसलामत , माझ्या केसालाही धक्का न लागू देता !
बखरकार केळकर बुवा स्वानुभव सांगतात १५८ व्या कथेंत की स्वामींनी त्यांना कसे असाध्य आजारांतून जीवनदान दिले. त्यानंतर १५९व्या कथेंत शूद्राच्या विहीरीवर स्नान केले म्हणून स्वामींस गुडगुडी पाजणार्‍या बळवंतराव नावाच्या माणसानें त्यांना अपमानास्पद वागणूक दिली असताना केळकरांना वाटते येथे आपल्या ओळखीचे कोणी नाही , माझा कैवारी कोणी नाही , पण स्वामी मात्र केळकरांची उपेक्षा होऊ देत नाही. म्हणजे स्वामींनी दुसर्‍यांदा हात दिला होता. पुढे गोपाळपंताचा अंहकार घालवायलाही स्वामीच हात देतात. म्हणजेच स्वामी आयुष्यात एकदाच नाही तर वारंवार मला मदतीचा हात देतच राहतात, मला कोणीही साथ नाही दिली तरी माझे स्वामी मला साथ देतातच, अगदी १०८ % !

विभूती, नमन, नामध्यानादी, तीर्थ स्वामीच या पंचप्राणामृतात ||
हे तीर्थ घे आठवी रे प्रचिती |न सोडी कदा स्वामी जया घेई हाती ||
२३३व्या कथेंत केज गावचें महारूद्रराव देशपांडॆ आपल्या गांवी आजारी पडून अत्यवस्थ झाले असतां त्यांचा थोरला मुलगा रघूत्तमराव हे अक्कलकोटी श्रींच्या दर्शनास आले होते ,नमन करून प्रार्थना करून आपल्या वडीलांच्या प्राणांची भीक मागतात. श्री समर्थ आराम होईल म्हणून आशीर्वाद देतात , तेव्हा जाताना रघूत्तमराव स्वामींच्या चरणांचे तीर्थ घेऊन जातात व आपल्या वडीलांना पाजतात, त्या दिवसापासून देशपांडेना आराम वाटू लागतो आणि तें बरें होतात. येथे ध्यानांत येते की माझ्या स्वामी आजोबांचे तीर्थ ही त्यांच्या प्रत्यक्ष दर्शना समानच आहे. त्यामुळे स्वामी ज्याला कोणाला आपल्या हातीं घेतात म्हणजेच  एकदा आपला मानतात , चरणीं ठाव देतात, त्याला स्वामी कधींच टाकीत नाही.

समाधीस्थ होण्याच्या आपल्या अंतिम समयी श्री स्वामी समर्थांनी भगवद् गीतेत साक्षात श्रीकृष्ण  भगवंतानी दिलेले वचनच आपल्या भक्तगणांना दिले होते - 

अनन्याश्चिंतयतो मां ये जना: पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥

''जे माझे अनन्य भावाने असे चिंतन, मनन करतील, त्या अनन्य भावाच्या चिंतनाची उपासना, सेवा मला सर्वस्व समजून अर्पण करतील त्या नित्य उपासना करणाऱ्या माझ्या प्रिय भक्तांचा मी सर्व प्रकारचा योगक्षेम चालवीन,'' असे त्यांनी आश्वासन भक्तांना दिले.

म्हणजेच थोडक्यात काय तर भगवान् श्रीकृष्णाने दिलेली ही ग्वाही स्वामींनी आपल्या भक्तांना पुनश्च एकवार स्वमुखाने दिली . परंतु येथेही पुरुषार्थ करायलाच सांगितले आहे की तुला तुझे परमेश्वराने दिलेले कर्म् तू करीत रहा, मी सदैव तुझ्यासोबतच आहे.
 ''भिऊ नकोस..मी तुझ्या पाठीशी आहे.'' असे अभिवचन देणाऱ्या अभयदाता श्री स्वामी समर्थ आजोबांच्या चरणीं कोटी कोटी लोटांगण आणि मानवी जीवनाचा हा जीवनयज्ञ त्यांनी दाखविलेल्या भक्तीमार्गावर चालून त्यांच्या चरणी समर्पित होवो  हीच आजच्या मंगलदिनी स्वामीचरणी प्रार्थना...

''अनंतकोटी ब्रम्हांडनायक राजाधिराज योगिराज परब्रम्ह सच्चिदानंद सद्गुरु  श्री स्वामी समर्थ आजोबा की जय.''
'' अवधूत चिंतन श्री गुरूदेव दत्त ''

॥ ऐशा स्वामी समर्थांना सदा असो दंडवत ॥
॥ ऐशा स्वामी समर्थांना सदा असो दंडवत ॥
॥ ऐशा स्वामी समर्थांना सदा असो दंडवत ॥
॥ ऐशा स्वामी समर्थांना सदा असो दंडवत ॥

Friday, 24 March 2017

श्रीसाईबाबा की पुकार सुनकर हमें कैसे "उठकर बैठना " है?

ॐ कृपासिंधु श्रीसाईनाथाय नम: ।

हेमाडपंतजी दूसरे अध्याय में साईकथाओं की अनन्य साधारण महत्त्व बखान करतें हुए कहतें हैं कि -
सुनते ही हम हो जाते हैं सावधान।
अन्य सुख लगने लगते हैं तिनके के समान ।
भूख-प्यास का हो जाता है संशमन।
और संतुष्ट हो जाता है अन्तर्मन।


मेरे साईबाबा की कथाओं का महज़ श्रवण करने से भी हर एक मानव अपना समग्र विकास कर सकता है, ऐसा सामर्थ्य श्रीसाईसच्चरित की इन सभी कथाओं में हैं। इसलिए साईबाबा की कथाओं को अगर हम पढें तो हमारा जीवन विकास करना कभी भी असंभव हो ही नहीं सकता क्यों कि मेरे साईबाबा के शब्दकोश में नामुमकीन , असंभव ये शब्द हैं ही नहीं । ये कथाएं बार बार पढकर , सुनकर मुझे साईनाथ का सामीप्य प्राप्त होता है, मुझे मेरे साईनाथ हमेशा मेरे साथ है, मेरे पास है इस बात की अनुभूती मिलने लगती है । 



हमारे जीवन से भय , न्यूनता कोसों मील दूर भाग जातें हैं । हमारे जीवन के कर्ता हम न होकर हमारे प्यारे भगवान साईनाथ हो जातें हैं - देखिए रघुनाथ और सावित्रीबाई तेंडूलकर इस साईभक्त पती-पत्नी का लडका बाबू वैद्यकीय परीक्षा देने से ज्योतिषी ने बतायी भविष्य बानी सुनकर बैठने में डर रहा था , हिचकिचा रहा था , उसके मां-बाप के समझाने पर भी वो मान नहीं रहा था ।  तब सावित्रीवाई तेंडूलकर का तो पूरा भरोसा साईबाबा के चरणों में था, उन्होने अपनी दिल की पीडा अपने साईबाबा के चरणों में रखी, तो उनके साईबाबा ने उन्के उस अटूट भरोसे को कायम रखा ।

शिरडी में ही बैठकर केवल अपने बातों से उन्होने बाबू के मन से ज्योतिषीजी के बानी का भय भी हटा दिया, उसका खुद पर का विश्वास दुगना कर दिया और उसे परीक्षा देने भी भेज दिया । इतना ही नहीम बल्कि एक परीक्षा (Oral -जबानी परीक्षा) देने के बाद जब बाबू डर कर दूसरी परीक्षा ( written - लिखाई ) में नहीं जा रहा था , तो साईबाबा ही कोई परिचीत व्यक्ती के भेस में उसे पहले परीक्षा में वो पास हैं ऐसी खुश खबर बताने पहुंच जातें हैं और परीक्षा छोडकर डर से घर पर बैठकर खाना खाने बैठे बाबू को परीक्षा देने भेज देतें हैं । यह हैं हमारे साईबाबा - यहां पर बाबू के जीवन में साईबाबा खुद कर्ता बन गए , बाबू की मां का विश्वास , उसकी बाबा के चरणों पर बनी श्रध्दा को कायम रहने के लिए ।

हमें तो केवल हमारे साईबाबा के आने पर उठकर बैठना है ।
  ‘उठकर बैठना है’ यानी वास्तविकता में हमें  क्या करना है? तो हेमाडपंतजी हमें इसका अर्थ भी समझातें है कि हम अहंकार की, षड्रिपुओं की, विकार-वासनाओं की गहरी नींद में डूबे रहते हैं, उस में से जागृत होकर हमें अपनी ही जगह पर केवल उठकर बैठना है। चलने का श्रम भी हमें करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि ये साईनाथ ही स्वयं चलकर अपने हर एक भक्त के पास आते रहते हैं। परन्तु हम ही घोर अहंकार की गहरी निद्रा में इस कदर डूबे रहते हैं और साथ ही कल्पनाओं की दुनिया में खोये रहते हैं कि हम जीवन की सच्चाई से दूर भागतें रहते हैं । 
अब बाबू तेंडूलकर की कथा को ही देखिए तो वह अपनी पढाई पूरी करने के बाद भी ज्योतिष्य पे भरोसा करके परीक्षा देने से मुं ह मोड रहा था । झूठे भविष्य की कल्पनाओं से डर गया था ।  

मेरे साईनाथ बारंबार मेरी तरफ़ आते रहते हैं, मेरे द्वारा बंद की गयी दरवाजे-खिड़कियाँ भी इन्हें रोक नहीं पाती हैं, क्योंकि इनकी गति ‘अनिरुद्ध’ है। इन्हें कोई भी, कभी भी, कहीं भी, किसी भी प्रकार से रोक नहीं सकता है। इसीलिए मैं चारों ओर से अपने सभी दरवाज़ें मज़बूती के साथ बंद करके भी यदि सोया भी रहता हूँ, तब भी वे मुझ तक आते ही रहते हैं।

ॐ कृपासिंधु श्रीसाईनाथाय नम: ।
 
ये साईनाथ मुझ तक आते हैं, बारंबार, तर्खड के कथा में जिस तरह हम पढ़ते हैं, बिलकुल उसी तरह। बाबा सौ. तर्खड को जो कहते हैं, उसे हमें मन में, हृदय में, अन्त:करण में अंकित करके रखना चाहिए। बाबा सौ. तर्खड से कहते हैं –

‘‘क्या करूँ माँ! मैं हर रोज़ की तरह। आज भी बांदरा गया था।
लेकिन नहीं मिला खाने-पीने को माँड। भूखा ही मुझे आना पड़ा।
कैसा देखो ऋणानुबन्ध। किवाड़ था यदि बंद।
तब भी मैंने प्रवेश किया स्वच्छंद । कौन प्रतिबंध लगा सके मुझ पर।’’

नौवे अध्याय में आनेवाले यह साईबाबा के खुद के शब्द हमें हमारे जीवन में अनिरूध्द गती से आनेवाले मेरे साईनाथ के बारे में बताते है, मेरे अहसास को ताकत देतें हैं ।

ऐसे ही हैं ये मेरे साईनाथ, हमारे साईबाबा  ! हम यदि अपने मन के सारे दरवाज़े भी हम बंद कर देते हैं यानी परमेश्‍वरी कृपा, मेरे साईबाबा की कृपा एवं सहायता का स्वीकार करने के सारे रास्ते बंद कर भी ले, या  नींद में यदि मग्न हो भी जाते हैं, तब भी मेरे पास वे आते ही रहते हैं, मेरे पास आकर मुझे आवाज देते ही रहते हैं, मुझे सावधान करते ही रहते हैं। 

संत तुलसीदास जी हमें सुंदरकांड में बतातें हैं कि भगवान श्रीराम की कथा हनुमानजी सदैव गाते ही रहते हैं। श्रीराम का काज करने- मैय्या जानकी को ढूंढने के कारण हनुमानजी लंका पहुंच जातें है । उस वक्त हनुमानजी
बिभीषण के पास भी गए और रावण के पास भी गए। हनुमानजी के आते ही बिभीषण नींद से उठ बैठे, वहीं रावण हनुमानजी के बारंबार समझाने पर भी अपनी अंहकार के गहरी नींद से जागने को तैयार ही नहीं था।
हनुमानजी हर किसी के पास आते ही रहते हैं, रामकथा का गायन हमारे सामने बैठकर करते ही रहते हैं, हमें बिभीषण की तरह स़िर्फ उठकर बैठना होता है, उन्हीं की तरह हनुमानजी का स्वागत करना होता है, बस इतना ही! इसे ही उठकर बैठना कहतें हैं ।

और यदि हम रावण की तरह उठकर बैठने को तैयार ही नहीं हैं, तो फ़िर अंतत: हमारे जीवन में भी सर्वनाश निश्‍चित है।
श्रीसाईसच्चरित की कथाओं का वाचन, श्रवण, अध्ययन करना यही है- साईनाथ की साद को प्रतिसाद देना, उठकर बैठना, बाबा की पुकार में ‘हामी’ भरना। यह मेरे श्रीसाईबाबा के कथाओं का अनन्य साधारण महत्त्व मैंने अधिक गहराई से जाना एक लेख को पढके - क्या आप पढना चाहेंगे ?
तो चलिए मेरे साईबाबा के पुकार को अपने जीवन में  सुनकर उठकर बैठने के लिए सिखतें हैं - 
http://www.newscast-pratyaksha.com/hindi/shree-sai-satcharitra-adhyay2-part12/
 


     

Wednesday, 8 March 2017

आई नमोऽ स्तुते , नमोऽ स्तुते , नमोऽ स्तुते ! जागतिक महिला दिनानिमीत्त जगदंबेला नमोऽ स्तुते !

जागतिक महिला दिनानिमीत्त आद्यस्त्री महन्मयी आदिमातेला ,  जगदंबेला नमोऽ स्तुते ! 


आई नमोऽ स्तुते , नमोऽ स्तुते , नमोऽ स्तुते
जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽ स्तुते ! 

आदिमाता महिषासुरमर्दिनीचा गजर जोरात रंगला होता आणी तिच्या सर्व लेकी आपल्या आईच्या , आद्य स्त्रीच्या, आद्यमातेच्या स्मरणात रंगून , बेभानपणे तिच्या नामघोषाच्या जल्लोषात तल्लीन झाल्या होत्या.

खरेच आज  ८ मार्च - जागतिक महिला दिवस !
ह्या दिवशी सर्वात पहिली आठवण येते ती आमच्या मोठ्ठ्या आईची !
असे गोंधळलात काय राव ? आमची मोठ्ठी आई म्हणजेच आपल्या सार्‍यांचीच पूज्यनीय, वंदनीय मूलभूत स्त्रोत असलेली आदिमाता महिषासुरमदिनी - कोणी तिला जगदंबा म्हणते, तर कोणी दुर्गा तर कोणी भवानी तर कोणी गायत्री तर कोणी अनसूया ! कोणत्याही नावांनी हाक मारा, साद घाला असते ती मूळ एकच ! आदिमाता - निरंतर प्रेमाचा पान्हा पाजणारी , अविरत प्रेमाचाच वर्षाव करणारी , लाभेवीण प्रेमाचा वात्सल्यतेचा पदर असणारी, अकारण कारूण्याने ओतप्रोत भरभरून वाहणारी , अचिंत्यदानी गुरुमाऊली, क्षमेचा चिरंतन घनु बरसवणारी ... कारण जी आपल्या बालकाच्या , एकमेवाद्वितीय पुत्राच्या जन्माच्या वेळेस उच्चारते ते आद्यवाक्यच , पहिले मातृवाक्यच किती नितांत प्रेम वर्षविते बघा -
माझ्या बालका मी तुझ्यावर निरंतर प्रेम करीत राहते !
हेच असते"त्या"महन्मयी , मांगल्याचे  मांगल्या, पावित्र्याचे पावित्र्य असणार्‍या आदिमातेला आपल्या जीवनाच्या केंद्रस्थानी , मनाच्या गाभार्‍यात वसविण्यासाठी केलेले आमंत्रण ! हे वाक्यच दाविते किती , किती म्हणून प्रेम आहे तिचे आपल्या लेकरांवर!

संत तुलसीदास विरचिते सुंदरकांडात साक्षात हनुमंत सीतामाईला सांगतात "तुम ते प्रेमु रामु के दुना"
म्हणजे जो कोणी जीव त्याच्या परमेश्वरावर , आदिमातेच्या पुत्रावर , त्रिविक्रमावर एक पट जरी प्रेम करतो त्याच्यावर हा आदिमातेचा पुत्र परमात्मा तो जीव करत असलेल्या प्रेमाच्या दुप्पटीने प्रेम करतच असतो , कारण तो आदिमातेचा पुत्र आहे.
मग असा विचार माझ्या मनाशी सहज आला कि अशा ह्या सदगुरुची माता, किती बरे अजून कैक पटींनी प्रेम करणारी असेल म्हणजेच ही परमात्म्याची माता ,
आदिमाता तर आपल्या लेकरांवर अनंत पटींनी प्रेम करणारच ना !

येथेही सुंदरकांडच आपल्या मदतीला येते. जर हा परमात्मा, हा सदगुरु, हा आदिमातेचा पुत्र एवढे माणसावर प्रेम करतो दुप्पटीने , मग "त्या"च्या कडे हा गुण कोठून आला तर "त्या"च्या आदिमातेकडून - म्हणजेच ह्या आदिमातेकडे तर प्रेमाचा अफाट स्त्रोत नक्कीच असणार .

सुंदरकांडात साक्षात महाप्राण हनुमंत रावणाला परमात्म्याच्या नावाचा , त्याच्या प्रेमाचा महिमा वर्णन करून सांगतात -
राम बिमुख संपति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं ॥ 
                                                                       (सुंदरकांड - श्लोक १३४ ) 
   
श्रीरामांना (परमात्म्याला म्हणजेच आदिमातेच्या पुत्राला ) विमुख झाल्याने मानवाच्या जीवनातील संपत्ती व ऐश्वर्य निघून रहाते , ते मिळूनही न मिळाल्यासारखेच आहे. ज्या नद्यांचे पात्र पाण्याने भरलेले नसते म्हणाजे ज्या नद्यांचे पात्र स्तोत्ररहित असते, त्या पावसाळा संपल्यावर परत कोरड्या पडतात. याचाच अर्थ गंगेसारख्या बारमाही पाण्याच्या नद्या ह्या त्यांचे मूळ सजल असल्याने पावसाळा संपल्यावरही त्या सुकत नाहीत . पावसाळा हे मूळ जलाचे स्त्रोत संपल्यावरही त्या १२ महीने पाण्याने भरलेल्या असतात. अशा प्रकारे आदिमातेच्या पुत्राचे परमात्म्याचे  नाव हेच माणसाच्या जीवन नदीचे मूळ आहे, जो आदिमातेच्या पुत्राचे सदगुरुचे म्हणा वा परमात्म्याचे नाव घेत रहातो त्याचे जीवन कधीच सुकत नाही. ज्या नद्यांचे मूळ सजल नसते त्या पावसाळा संपल्यावर सुकून जातात, तसेच परमेश्वराच्या नामाचा प्रेम पुरवठा ज्या माणसाच्या आयुष्यात नाही त्या माणसाचे जीवन म्हणजे "असजल मूळ " नद्यांसारखी होते म्हणजेच त्या माणसाचे जीवन प्रेमहीन होते, त्यातील चैतन्य निघून जाते, रसरशीतपणा निघून जातो.
मग हा परमात्मा आदिमातेच्या पुत्राचे मूळ असलेली आदिमाता ही साक्षात प्रेम , प्रेम आणि बस्स प्रेमच असणार ना ? म्हणजेच ही परमात्म्याची माता ,आदिमाता तर आपल्या लेकरांवर अनंत पटींनी प्रेम करणारच ना ! मग अशा प्रेमळा आदिमातेवर आपण तिच्या लेकरांनी सुध्दा प्रेमच करायाला पाहिजे ना , आपल्याला जमेल , आपल्याला झेपेल तेवढे तरी . जसे बाळाचे त्याच्या आईवरती प्रेम असते तसेच .
आता आपण लहान मुलाच्या जीवनात त्याच्या आईचे असलेले अनन्य महत्त्व आणी तिचे प्रेम बघू या . 
आपण अगदी लहान असताना सतत आईच्या मागे मागे तिचा पदर धरून फिरत असतो ना , लहान बाळाला जशी त्याची आई दिसली नाही की जरा सुध्दा चैन पडत नाही , ते लगेच मोठ्याने भोकाड पसरते, सगळे घर डोक्यावर घेते , रडून रडून नुसता जीवाचा आकांत करते , पण आई दिसता क्षणी त्याचे हसू उमलते. त्याचे रडे आपोआप थांबते.
तसेच आपल्याला आपल्यावर स्वत:पेक्षाही अधिक प्रेम करणार्‍या आदिमातेवर असेच प्रेम करता आले पाहिजे, तिचा विरह आपल्याला जाणवायला पाहिजे आणि असह्यही व्हायला पाहिजे आणी मग विरह झाला की आपोआप आपण प्रेमाने तिला शोधणार, तिला हाक मारणार ? मग प्रश्न पडतो ह्या परांबेला, ह्या जगदंबेला साद तरी कशी घालायची तर अगदी सोपे आहे तिच्याच पुत्राने भगवान परशुरामाने आपल्याला उत्तर दिले आहे कि
जेव्हा जेव्हा आपल्याला आपल्या धकाधुकीच्या आयुष्यात , आपण दिवसभर कामात असताना, व्यवहारात असताना , आजूबाजूच्या इतर मानवांमध्ये असताना आपल्या ह्या लाडक्या आदिमातेची आठवण येते तेव्हा
ह्या जगज्जननीला साद घालून भेटायला बोलावणे सुध्दा किती सोप्पे ! आहे बघा - तिनेच तिच्याच कृपेने - दिलेले अचिंत्यदानी वरदानामुळे
आदिमाते तू प्रेमळ आहेस आणि मी अंबज्ञ  आहे .  अशी तिला साद घालायची .
हे "त्या" आदिमातेचेच वचन आहे कि जो कोणी  प्रेमाने तिला असे आग्रहाने साद घालतो, प्रेमाने तिची आठवण करतो , तिला आपल्या जीवनात कळकळीने साद घालतो तेव्हा ती वत्सला आपल्या लेकरांच्या सादेला हाकून अनिरूध्द गतीने आपल्या जीवनात येतेच , येते , कारण हे "त्या " आदिमातेनेच सर्व श्रध्दावान जगताला दिलेले अभय वरदान आहे.  पण आपला विश्वासही असायला हवा तसा !
साक्षात भगवान परशुरामांनी मातृवात्सल्य  उपनिषद्  अर्थात् श्रीस्वस्तिक्षेमविद्या ह्या ग्रंथात आपल्याला तिच्या शब्दांची आणि वचनाची कथा सांगितली आहे आणि आदिमातेचे हे वचन आहे की - मी तुमच्यासाठीही अशीच धावत येईल ."
आपण पाहतो की मानवी माता जोवर आपल्या गर्भात बालकाला धारण करते ९ महीने , तोवरच्या गर्भधारणा काळात म्हणजे ९ महीने ते गर्भातील बालक ना स्वत: होऊन श्वास घेत , ना खात, ना पित ! ते बालक आपल्या मातेवर , आपल्या जन्मदात्रीवर संपूर्णत: अवलंबून असते. परंतु ९ महीन्यानंतर जेव्हा माता प्रसूतीनंतर अपत्याला जन्म देते त्या क्षणापासून त्या नवजात बालकाला आपला श्वास आपल्याला घ्यावा लागतोच ना !
माणसाने कितीही आपल्या अगदी लाडक्या लेकराचे दु:ख घ्यायचे ठरवले तरी तो कधीच घेऊ शकत नाही , किंवा अडीअडचणीला, संकटसमयी आपला श्वास द्यायचा म्हटला प्राण वाचवायला तर तो ही देऊ शकत नाही. एकतर कृत्रिम रीत्या ऑक्सीजन द्यावा लागतो , व्हेंटिलेटर मशिन लावावे लागते  पण ही आदिमाता किती वत्सला हृदया आहे बघा ! तिची लेकरे जेव्हा अगतिक होतात आजारांनी, जेव्हा शारिरीक किंवा मानसिक आजारांनी त्रस्त होतात , त्यांचे जीवन असह्य होते तेव्हा आदिमातेला प्रेमाने साद घालता आणि केवळ "श्रीश्वासम्" गुह्यसूक्तम् हा आपल्या पुत्राकरवी जगाच्या उध्दारासाठी सहज ,सुलभ असा मार्ग तिनेच हाती सोपावला. हे "श्रीश्वासम् " म्हणजे निरोगीकरणाची गुप्तकिल्लीच जणू काही !
अवधूत अंबे आंजनेया त्रिविक्रमा ला प्रेमाने आवर्जून आमंत्रण देऊन. त्यांची क्षमा प्रार्थून, त्यांची कृपा म्हणजेच आरोग्यदानाचा प्रसाद मागून आणि अरूला म्हणजेच आदिमातेची unmerited Grace , unmerited Love मागून , कृतज्ञ भाव व्यक्त करीत म्हणजेच अंबज्ञता दर्शवित केलेली प्रार्थना ! तदनंतर   
"आदिमाते तुझा श्वास माझ्या देही फिरतो आहे , मी तुजवरी प्रेम करीतो अन तूही मजवरती "  ही आर्ततेने केलेली आळवणी .
बस्स ! एवढेच फक्त कानाने ऐकायचे , सहज साधेपणाने , ना कुठलेही आसन घालायला नको ,ना कुठलाही मंत्र जप करायला नको , ना कुठलीही ध्यान-धारणा करायला !
असे वाटते म्हणावे - इतुके सोपे जीवन केले बसल्या जागी देव आले 
                              उठूनी बसण्या दमलो नाही हीच काय ती सेवा घडली
खरोखरीच एक आजीच एवढी आभाळमाया करू शकते ना कारण तिची नातवंडे असतात तिच्याकरिता  "दूधावरची साय" म्हणजेच तिच्या लेकापेक्षाही, लेकी पेक्षाही  अधिक प्रिय !   
ही आदिमाता एवढी कृपा बरसविते ना की पदोपदी प्रचिती येते "देणार्‍याचे हात हजारो दुबळी माझी झोळी रे"
मनुष्याच्या प्राणमय देहात सप्तचक्र असतात आणी दोन सुप्तचक्रे असतात . ह्या सप्तचक्रांचे संतुलन बिघडल्याने मानवाला नाना तर्‍हेच्या समस्या उद्भवतात, त्यामुळे हे सप्तचक्रांचे संतुलन अत्यंत आवश्यक असते मानवासाठी , त्यामुळे आपल्या सर्वात श्रेष्ठ "मानव" ह्या अपत्याच्या क्षेमकुशलासाठी ही सप्तचक्रनिवासिनी आदिमाताच कार्यरत होऊन सत्वरी धाव घेते व हाती सुपुर्द करते - श्रीशब्दध्यानयोग ! अत्यंत सोपा उपाय ! स्वस्तिवाक्य व प्रदक्षिणा मंत्र म्हणत केलेले अत्यंत सोप्पी योगाची पध्दत , इतक्या सहजतेने की  वाटावे अग  आदिमाते ! मी तर सतत चुका करून , वारंवार अपराध करून तुझ्यापासोन माझी नाळ तोडली होती, तुझ्याशी , माझ्या घराशी, माझ्या गावाशी, माझ्या शहराशी, माझ्या राज्याशी, माझ्या देशाशी असणारे नाते किती मोडकळीला आणले होते , परंतु हे आदिमाते तू किती सहजतेने तुझ्या ह्या श्रीशब्दध्यानयोगातून मला जोडून घेतले मला तुझ्या चरणांशी !
आदिमाते तू खूप खूप प्रेमळ आहे आणि माझ्या सदगुरुंच्या कृपेने मी तुझ्या चरणांशी अंबज्ञ आहे आणि सदैव , आजन्म अंबज्ञ राहो हीच तुझ्या चरणी प्रार्थना !
पुढे कोडे असते श्रध्दावानाला मी तरी तुझ्या कृपेने श्रध्दावान झालो , भक्तीच्या देवयान मार्गावर तू मला सदगुरुंच्या हाती सोपवून , त्रिविक्रमाच्या चरणी घालून , पण आदिमाते माझ्या वंशात माझी मुले , माझी अपत्ये , माझी नातवंडे माझी पुढची पिढी ह्याच भक्तीच्या वाटेवर चालेल का ? असे साहजिकच कोणालही वाटेलच ना? जशी आपण आपल्या वारसांसाठी वारसाहक्काने मालमत्ता देतो तशीच ही भक्तीची अत्युच्च देणगी !

आपण श्रीगुरुचरित्राच्या १४व्या अध्यायात वाचतो की सांयदेव श्रीगुरुदत्तात्रेयांना आळवतात की -
" माझे वंशपारंपरी । भक्ति द्यावी निर्धारी  । इह सौख्य पुत्रपौत्री । उपरी द्यावी सदगती ।।"
तेथे एकट्या सायंदेवाला श्रीगुरुंनी वरदान दिले , परंतु येथे त्या आदिमातेच्या कृपेने , तिच्या पुत्राच्या त्रिविक्रमाच्या कृपेने भक्तिचे अमाप वरदान समस्त मानवजातीलाच प्राप्त झाले ते शिवगंगागौरी मातेने तपश्चर्येचे फलस्वरूप दिलेल्या , "ब्रम्हास्त्रविद्या अंतर्भूत असलेल्या गदास्तोत्रातून !
असे हे कधीही न संपणारे आदिमातेचे अमूल्य , अतुलनीय भांडार !

श्रीसाईसच्चरितातील साईबाबांचे उद्गारच जणू ह्याची प्रचिती देतात -
कोणाचें देणें कोणास पुरतें ।  कितीही द्यावें सदा अपुरतें । 
माझें सरकार जैं देऊं सरतें । न सरतें तें कल्पातीं ।।
देणें एक माझ्या सरकारचें । तयासी तुळें काय तैं इतरांचें  । 

अर्यादास मर्यादेचें । भूषण कैंचे असावें ।।
माझें सरकार न्या न्या वदे । मजलाच जो तो म्हणे दे दे । 

कोणी न माझ्या बोलासी लक्ष दे ।  एकही सुधें ऐकेना ।।
उतून चालला आहे खजिना । एकही कोणी गाड्या आणीना । 

खणा म्हणतां कोणीही खणीना ।  प्रयत्न कोणा करवेना ।।
मी म्हणें तो पैका खणावा । गाड्यावारीं लुटून न्यावा । 

खरा माईचा पूत असावा । तेणेंच भरावा भांडार ।।
                                                                              - ( श्रीसाईसच्चचरित , अध्याय ३२ )
आदिमातेचा पुत्र त्रिविक्रम हा आपला सदगुरु रूपाने आपल्यात येतो वावरतो, आपल्याशी हसतो , बोलतो, चालतो , आपल्यातील एक बनून राहतो का कधी राम बनून येतो, कधी कृष्ण बनून , कधी साई बनून तर कधी योध्दा रूपाने परशुराम बनून ! "त्या"ची अनिरूध्द गती आम्हाला तारून नेते भवसागरातून अगदी कोरड्या चरणांनी असे संतमहंत उच्चरवाने गर्जून सांगतात , गरज असते आम्हाला "त्या " आदिमातेला शरण जाण्याची !  तिचे चरण पूजिण्याची आणि तिला तिच्या पुत्रासह आपल्या जीवनात आमंत्रित करायची , तिला आपल्या हृदयसिंहासनावर तिच्या पुत्रासह विराजमान व्हायला प्रार्थिण्याची !
हे आदिमाते , आम्ही तुझी लेकरे तुला अंत:करणापासून साद घालतो तू तुझ्या त्रिविक्रम , सदगुरु पुत्रासह ये, तुझ्या साईसह  (साक्षात ईश्वर ) आमच्या जीवनी ये आणि निवास कर !
ओ जय महाल्क्ष्मी माँ , वत्सल हृदया माँ , जातवेद संग ले आवो तुम अनपगामिनी  माँ
जातवेद हे आदिमातेच्या त्रिविक्रम पुत्राचेच एक नाव आहे -जातवेद म्हणजे सर्वसाक्षी - जो सर्व काही जाणतो , ज्याला काही माहीत नाही असे काही ज्या जगात नसतेच मुळी ! सर्वदर्शी, सर्वज्ञ !
म्हणूनच आपल्याला  ज्ञानोबामाऊलीसुध्दा हेच शिकवितात सदगुरुंना बसायला आसन कुठचे द्यायचे तर हृदयसिंहासन - (कारण ज्ञानियांचा राजा संत ज्ञानेश्वर हे जाणतात की सदगुरु आला की त्याच्यासह त्याची माता - आपली आदिमाता ही येणारच )
आता हृदय हेआपुले। चौफाळूनिया भले। वरी बैसवू पाऊले। श्रीगुरुंची।
चला तर आदिमातेला साद घालू या-


                                            "आदिमाते तू प्रेमळ आहेस आणि मी अंबज्ञ  आहे . "
 
 आमंत्रण करू या , सर्वोच्च आमंत्रण करू या , तिच्याच सर्वोच्च मंत्राने -
" माझ्या बालका मी तुझ्यावर निरंतर प्रेम करीत राहते. "
हाच मानवासाठी प्रारब्ध बदलण्याचा सर्वोच्च उपाय आहे !

संदर्भ -
१.  मातृवात्सल्य  उपनिषद्  अर्थात् श्रीस्वस्तिक्षेमविद्या 
२.  श्रीसाईसच्चचरित
३.  श्रीगुरुचरित्र
४.  सुंदरकांड
  
   

Sunday, 5 March 2017

तव पदरीं असता ताता। आडमार्गीं पाऊल पडतां .....

तव पदरीं असता ताता। आडमार्गीं पाऊल पडतां।

सांभाळुनि मार्गावरता। आणिता न
दुसरा  त्राता।
 

"त्या " एकाच्याच पदरी असताना , "त्या" च्याच मार्गावर चालताना  चुकीने आडमार्गी पाऊल पडतां , आपण "त्या" ला दिलेल्या वेदनेच्या प्रखर जाणिवेतून उमटलेले  काही शब्द .....

अक्कलकोटनिवासी श्रीस्वामी समर्थांचे भक्त गजर करण्यात तल्लीन झाले होते , त्यांच्या मुखीचा हा पवित्र , पावन करणारा गजर ऐकून आठवण झाली ती श्रीस्वामी समर्थांच्या दोन श्रेष्ठ भक्तांची - चोळाप्पा आणि बाळाप्पा !
चोळाप्पाचे प्रेम हवे मज बाळाप्पाची भक्ती हवी
विभक्तीचा अंश नको मज स्वामी तुमची कृपा हवी

चोळाप्पाचे श्रीस्वामींवर निरतिशय प्रेम होते तर बाळाप्पाची श्रीस्वामीं चरणीं नितांत भक्ती होती.

खरे तर परब्रम्ह स्वरूप सदगुरुंच्या लीलांचा ठाव कोणालाच लागत नाही , त्या अतर्क्य लीलांचे अवगाहन करणे व त्यांच्या अतुल्य प्रेमाचा आकंठ आस्वाद घेत त्या अमृततुल्य प्रेमात निरंतर डुंबत राहणे एवढेच भक्तांच्या हाती असते. तरीही अशा सद्गुरुंच्या गळ्यातील ताईत बनलेल्या कांही भक्तांचे आचरण पाहतां जाणवते की भक्तीचा "भ" किती सुंदर , फक्त आणि फक्त प्रेमाने ओथंबून ओसंडून वाहणारा असा प्रेमप्रवास आहे जो भरताने केला -
भरत - भक्तीत रममाण झालेला , भक्तीत स्वतः:ला विसरून रत झालेला "त्या "चरणांचा दास !
 . "तो" फक्त आणि  फक्त माझाच आणि मी फक्त आणि फक्त "त्या" एकाचाच, हा फक्त एकमेकाचे होऊन राहण्याचा प्रवास !

अशाच स्वामीभक्त्तीत आपले सर्वस्व झोकून देणार्‍या बाळाप्पांच्या भक्ती-प्रेमाच्या काही कथा स्मरू या आणि सदगुरुतत्त्वाच्या अतर्क्य लीलांचा रसास्वाद चाखू या....

श्री गोपाळबुवा केळकर ह्यांनी लिहिलेल्या श्रीस्वामी समर्थ आजोबांच्या बखरीत बाळाप्पाच्या स्वामींच्या चरणीं असलेल्या नितांत सुंदर भक्तीच्या कथा वाचताना डोळे पाणावतात. बखरीतील १३२ व्या कथेत बाळाप्पांच्या पूर्वेतिहासाबद्दल वाचनात येते की बाळाप्पा हे हवेरी गांवी राहात होते. एके दिवशी त्यांना पश्चात्ताप होऊन गुरु करावा म्हणून ते मुरगोड गांवी गेले. तेथील महान कीर्तीमान पुरूष म्हणून प्रसिध्दी पावलेल्या चिदंबर दीक्षित ह्यांचे स्थान पहावें म्हणून बाळाप्पा त्यांचे गांवीं गेले, तेथे ३ दिवस राहून पुढे ते गाणगापुरास गेले. गुरुदर्शन व्हावे म्हणून त्यांनी फार कडक सेवा चालविली असतां , ३ महिन्यांनंतर त्यांना अक्कलकोटास जा असा एके दिवशी दृष्टांत झाला . अक्कलकोटाची कीर्ति बाळाप्पांनी आधीच ऐकली होती आणि आता आज्ञा झाली म्हणून ते लगेच अक्कलकोटास आले. त्या दिवशी श्रीस्वामी समर्थ खासबागेंत होते. बाळाप्पांनी दर्शन घेऊन पैशाची खडीसाखर पुढे ठेविली . असो. श्रीस्वामींची मूर्ति पाहतांच स्वप्नांत ज्या संन्याशाने  दर्शन दिले , तीच मूर्ति असे पाहून बाळाप्पांस कोण आनंद झाला. मग तो मुरलीधराचें देवळांत राहून स्वामींची सेवा करू लागला.

बाळाप्पांस प्रथम सुंदराबाईने आश्रय दिल्यामुळे तो तिच्यामार्फत स्वामींची सेवा करू लागला. चोळाप्पास सुरुवातीला बाळाप्पाने श्रीस्वामीं जवळ राहू नये असे वाटे, त्यामुळे त्याने तसे स्वामींना सुचविले देखिल, पण श्रीस्वामी समर्थांनी बाळाप्पाला माघारी धाडण्यास नकार दिला. पुढे बाळाप्पाला घालविण्यासाठी श्रीपादभटाने युक्तीने चिठ्ठी काढली असतां ’जाऊं नको ’ अशीच आली व त्यावर त्या दोघांचा निरूपाय झाला .
बाळाप्पास कितीही श्रीस्वामींनी आपल्याला प्रसाद द्यावा असे मनांतून वाटले तरीही कधीही स्वामी समर्थ आजोबा त्यास प्रसाद देत नसत. एकदा  तर बाळाप्पाने स्वामींपुढे प्रसाद म्हणून ठेवलेल्या खारकांपैकी  १ खारीक आपणांस प्रसाद म्हणून मिळावी म्हणून स्वामींच्या चरणीं प्रार्थनाही केली, तरी देखिल स्वामींनी त्याला १ खारीक देखिल प्रसाद म्हणून दिली नाही. चोळाप्पानेत्या खारका उचलून त्यांतील २ खारका बाळाप्पाला दिल्या व आनंदाने बाळाप्पा माघारी परत जात असताना चक्क श्रीस्वामींनी चोळाप्पाला सांगून त्या २ खारका परत मागवून घेतल्या व स्पष्ट सांगितले देखिल ," अरे चोळ्या , त्याला कांही द्यावयाचे नाहीं ! जा, खारका परत घेऊन ये. अर्थात चोळाप्पाने धांवत जाऊन बाळाप्पापासून खारका मागवून आणल्या, ज्याने बाळाप्पास फार वाईट वाटले. परंतु दयाघन , करूणामूर्ती श्रीस्वामी समर्थांची त्या मागे अचिंत्यदानी लीला दडलेली होती.

चोळाप्पा, सुंदराबाई, श्रीपादभट हे सेवेकरी जरी बाळाप्पाला अक्कलकोट सोडून माघारा आपल्या गांवी जाण्यास नाना उपाय योजीत होते , तरी देखिल त्या कशाचीच पर्वा न बाळगतां, बाळाप्पाअत्यंत निष्ठेने, सबुरीने स्वामी चरणांची सेवा हेच आपले परम कर्तव्य मानून भक्ती करीत राहिले ह्या त्यांच्या वागण्यातून स्वामीं प्रतीची त्यांची प्रेमळ, निष्काम भक्तीच दिसून येते.
बखरकार केळकर बुवा म्हणतात ज्याला स्वामी आजोबा प्रसाद देत , त्याला जाण्याची आज्ञा असे व ज्याला प्रसाद मिळत नसे त्याला आज्ञा नसे. म्हणजेच बाळाप्पाने आपल्या चरणीं सेवेसाठी राहावे असाच श्रीस्वामींचा मनोदय होता असे जाणवते. अर्थातच भक्ती हाच ज्याचा काम आहे त्या भक्ताचा स्वामी तरी कसा अव्हेर करणार ? परंतु स्वामी मनीचे शब्द जाणणार तरी कसे ?

अक्कलकोट येथे श्रीस्वामी समर्थांच्या चरणीं सेवेत रूजू होण्याआधी बाळाप्पाला  ३ वर्षांच्या आधी व्यापाराच्या भरभराटीच्या एका द्वेष्ट्याने कानवल्यांतून विष खाऊ घातले होते. त्यामुळे बाळाप्पाच्या बेंबीतून रक्तस्त्राव होत असे. ह्यामुळे बाळाप्पा फार आजारी झाला होता व त्याला जागेवरून उठवेना. तेव्हा शरणागत वत्सल गुरुमाऊलींच्या कृपेने बाळाप्पाच्या बेंबीतून फार रक्त वाहू लागले व एका पुडीतून कांही काळा पदार्थ बाहेर पडला व बाळाप्पास आराम जाहला. ह्यावरून स्वामींनी बाळाप्पाच्या जीवावरचे संकट निवारण करून त्याचे प्राण वाचविले होते.

सुरुवातीला हे जरी अगम्य कोडे असले तरी कालांतराने भक्ताला आपल्या सदगुरु माऊलीच्या मनांतले  न सांगता ही कसे आपसूक "त्या" च्याच लीलेने कळू लागते हे पाहू या आता.

असेच आणखी दोन-चार श्री स्वामींच्या अतर्क्य लीला , चमत्कार अनुभवास आल्यावर तर बाळाप्पाची भक्ती दिवसेंदिवस स्वामीं चरणीं अधिकच घट्ट होऊ लागली. सुंदराबाई , चोळाप्पा ह्यांच्या नंतर जेव्हा बाळाप्पाचा अंमल सुरु झाला तेव्हा स्वामींची सर्व तयारी तो अत्यंत चोख पणे ठेवीत असे. बाळाप्पास सुरुवातीस पाणी आणण्याची लांज वाटत असे , पण एके दिवशी श्रीस्वामी समर्थ म्हणाले ," निर्लज्जो गुरुसन्निधौ" हे ऐकून बाळाप्पाने लाज सोडून दिली व तो एकनिष्ठेपणें सेवा करू लागला. सदगुरुंने सांगता क्षणी त्याची आज्ञा स्विकारणे आणि कोणतीही चाल ढकल न करता, दुर्लक्ष न करतां ,  तंतोतंत पाळणे हे उत्तम भक्ताचे लक्ष्ण बाळाप्पाच्या अंगी बाणलेले ध्यानांत येते.

सुंदराबाईच्या पुढे कोणाचेही कांही चालत नसे. एकदा दत्तजयंतीचा दिवस असतांना यात्रेची गर्दी फार असल्या कारणाने श्रीस्वामी समर्थ आजोबांना पहाटे चार वाजता स्नान घालून भोजन घातले होते. तितक्या पहाटेंस दर्शनास आलेल्या एका गृहस्थाने "श्रींनी आपला नैवेद्य खावा" ह्या इच्छेने पंचपक्क्वानांनी भरलेले ताट आणले होते. परंतु स्वामी आजोबांची आंचवण्याची व नैवेद्य येण्याची एकच गांठ पडल्याने त्याचा नैवेद्य तसाच राहिल्याने तो गृहस्थ फारच हिरमुसला होता. सुंदराबाईपुढे हात जोडून त्याने कसें ही करून  स्वामींच्या मुखांत एक घांस तरीं पडावा व त्याबद्दल बाईंस दोन रूपये देण्याचे कबूल केले होते. पैशाच्या लोभी सुंदराबाईने तसे मान्य करून आतां जेवण झाले, दुपारी घालूं अशी हमी दिली होती. परंतु रात्री १० वाजेपर्यंत दर्शनास आलेल्यांची दाटी असल्याने स्वामींनी कांहीच खाल्ल्ले नाही. रात्री सर्व सारवासारव झाल्यावर सुंदराबाईने पैशाच्या लोभानें बाळाप्पाला दटावणी करून नवीन स्वंयपाक न करू देतां , तसेच त्या गृहस्थाचे आणलेले , शिळे झालेले अन्न भरविले. श्रींनी जरी अन्न मुकाट्यानें खाल्ले, मात्र त्रिवार म्हणाले, " आतां काय नबाब झाले! "

स्वामींच्या एवढ्या शब्दानें बाळाप्पास मरणप्राय दु:ख झाले व अंत:करण सद् गदित  होऊन  श्रींचे दोन्ही पाय पोटाशी घट्ट धरून तो रडूं लागला. झाल्या चुकीबद्दल माफी मागितली व बाईचे बोलण्यावरून श्रींस शिळे खाण्याचा प्रसंग त्यानें कधींही येऊ दिला नाहीं !
ह्यावरून बाळाप्पाची समर्थांच्या चरणीं असलेली प्रेमळ , निग्रही भक्ती दिसते. स्वामी तुमच्यासाठी काहींही करायची तयारी असल्याची त्याची कृती स्वामीं ठायीचा त्याचा अननय भाव दाखवितो.

"श्रीसाईसच्चरित" ह्या महान अपौरूषेय ग्रंथात हेमाडपंत अध्याय २३ व्या मध्ये उत्तम भक्ताची लक्षणें  वर्णितांत -
न सांगतां अभीष्ट जाणणें   जाणतांच सेवा करूं लागणें  
प्रत्यक्ष आज्ञेलागीं न खोळंबणें जाणें ’उत्तमशिष्य ’ तो

वरील प्रसंगी आपण पाहिले की श्रीस्वामी समर्थांनी फक्त कांही मुखातून उद्गार काढले होते आणी बाळाप्पाला कांही स्पष्ट आज्ञा दिली नव्हती किंवा सुंदराबाईच्या अक्षम्य कृत्याबद्दलही कांहीं अवाक्षरही काढले नव्हते, तरी देखिल बाळाप्पाने स्वामींचे अभीष्ट (मनांतील) जाणले व जाणतांच तशी सेवा करू लागला तो, पुढे कोणाचीही तमा न बाळगता.

असेच  एकदां बाळाप्पा प्रात:काळी (पहाटे ) चार वाजतां माळ घेऊन गणपतीचा जप करीत बसला होता. श्रीस्वामी समर्थ तेव्हा पलंगावर बसले होते आणि शिवुबाई सेवेकरीण खालीं बसली होती. गोष्टी चालल्या असतां शिवुबाईने स्वामींस विचारले कीं ," हल्ली बाळाप्पा काय करीत आहे? तेव्हा श्री समर्थ म्हणाले ," तो तरट विणत आहे." शिवुबाई गप्पच राहिली. बाळाप्पाने समर्थांचे उत्तर ऐकून मनांत विचार केला , तरटाचा उपयोग विशेष होत नाहीं. त्या अर्थी गणपतीच्या जपापेक्षा श्रीस्वामी समर्थांचा जप करावा. दुसरे दिवशी पुन्हां श्रीस्वामी समर्थ आजोबा पलंगावर बसलें असतां शिवुबाई जवळ होतीच , आणि बाळाप्पा माळ घेऊन जप करू लागला होता. कांही वेळाने शिवुबाईनें श्रींस प्रश्न केला कीं ,"आज बाळाप्पा काय करीत आहे? " समर्थांनी उत्तर दिलें की ," अगं तो कांबळी विणीत आहे." बाळाप्पाने विचार केला , तरटांपेक्षा कांबळींचा उपयोग जास्त आहे तर सर्वकाळ समर्थांचे नांवाचाच जप करावा.

ह्या कथेंतून दिसतें की बाळाप्पाने श्रींच्या मनांतील अभीष्ट जाणून स्वामी समर्थ नावाचा जप करण्यास सुरुवात केली , येथेही श्रींनी कोणतीच प्रत्यक्ष आज्ञा केली नव्हती. म्हणून बाळाप्पा स्वामीमुखीच्या प्रत्यक्ष आज्ञेलागीं खोळंबला नाहीं की कधी मला स्वामी समर्थ स्वमुखाने आज्ञा देतील की तू माझ्या नावाचा जप कर व मगच मी तो जप करेन. हे श्रेष्ठ , उत्तम भक्ताचे लक्षण आहे असे वाटते.

पण कधी कधी भक्ताला आपले हित -अहित कळत नसते , उचित अनुचित कळत नसते , तेव्हा मात्र सदगुरु भक्ताच्या कनवाळ्या पोटीं स्पष्ट शब्दांत तशी आज्ञा देताना दिसतात,

श्रीस्वामी समर्थ आपल्या भक्तांस इतर तीर्थांस कधी जाऊ देत नसत.
एकदां मुंगी-पैठणची विठाबाई नावाची स्त्री अक्कलकोटास श्रींच्या दर्शनास आली होती. आषाढ महिना आला असून एकादशी (आषाढी एकादशी ) नजीकच आली होती. बाईंच्या मनांत पंढरपुरास जावयाचे होते व तिने आपला उद्देश गणपतराव व बाळाप्पा ह्यांना कळविला होता. श्री समर्थांची स्वारी त्या वेळीस राजवाड्यात मुक्कामाला होती व तेथे फक्त बायकांना दर्शनास जावयाला परवानगी होती, म्हणजेच पुरुषांना मनाई होती. श्रींचे राजवाडयांत राहणे किती काळासाठी हे माहीत नसल्याने बाहेर राहून कंटाळवाणे दिवस काढण्यापेक्षा हे दोघे विठाबाई बरोबर पंढरपुरांस जायचे ठरवितात. परंतु विठाबाई श्रींच्या दर्शनास राजवाड्यांत गेली असतां श्रींच्या मर्मभेदी सूचक बोलाने विठाबाईस उपरती होते कि श्रीस्वामी समर्थ हे प्रत्यक्ष चालते- बोलते देव असून आपण
विठोबाचे दर्शन करण्यास जाणार व त्यातून श्रींचे सेवेकरी बरूबर नेणार हे चुकीचे आहे. विठाबाई तशी कबूली श्रीस्वामींस देऊन आपला पंढरपुरास जाण्याचा बेत रहीत करते. अर्थात्च श्रींनी लवकरच वांद्यातून बाहेर येऊन सर्व भक्तवृंदास दर्शन दिले , ज्यामुळे बाळाप्पा व गणपतरावांनाही आपली चूक उमगली.

असेच उदाहरण वामनबुवा बडोदकरांच्या बाबतीत घडलेले आढळतें शके १७९४ सालीं सिंहस्थात वामनबुवा बडोदेकर हे स्वामीभक्त नाशिकांस जाऊन नाशिक, त्र्यंबक अशा यात्रा करून श्रीसप्तशृंगीदेवीचे दर्शनास गेले होते. तेथील पुजार्‍यांनी वामनबुवांची ते स्वामी भक्ती करीत असल्याने खिल्ली उडविली परंतु वामनबुवा व ब्रम्हचारीबुवा ह्यांच्या मनीची श्रीसप्तशृंगीदेवीच्या मुखातील तांबुल प्रसाद म्हणून खाण्याची इच्छा शेवटी स्वामींच्या कृपेनेच पूर्ण होऊ शकली.
पुढे तर श्री क्षेत्र पंढ्रपूर येथे जाऊन श्रीपांडुरंगावर गंगा घालण्याची मनिषा पुरविताना आपण स्वत:च "तो" पांडुरंग असल्याचे श्रींना प्रत्यक्ष तेथे मूर्ती रूपाने दर्शन देऊन दाखवावे लागले होते. नंतर वामनबुवांना तशी स्पष्ट प्रचिती श्रीस्वामींनी प्रत्यक्ष बोलून दाविली होती.

कधी कधी वाटते कि युगानुयुगे हा सदगुरुराया माझ्यासाठी सतत चालतोय , नाही नाही धावतोय आणि माझ्या चुकीच्या वागण्याने माझ्यामागे धावून धावून "त्या"चे पाय सुजले आहेत, खूप खूप दुखत आहेत आणि आता "त्या" ला सहज चालणे पण मी अशक्य केले आहे , किती विचीत्र कर्मगती ना ?   

एकीकडे भक्ती करताना आपण सदगुरुलाच ब्रम्हा, विष्णु, महेश म्हणून "त्या"चा गोडवा गातो आणि तरीही "त्या"च्या चरणी अनन्य शरणागती स्विकारण्याचे सोडून आपण तीर्थक्षेत्रांमध्ये देवाला शोधायला धाव घेतो. तेव्हा आपण "त्या"च्या अंत:करणाला किती वेदना देत असू नाही का? अरे माझ्या लेकरांसाठी मी अथक परिश्रम करून, घोरातिघोर तपर्श्च्र्या करून  जगातील सर्वात पावन पवित्र तीर्थक्षेत्र निर्माण केले आणि तरीही माझी लेकरे मला न मानता, माझ्या शब्दांची किंमत न करता हजारो कोस दूरवर तंगडतोड करीत राने वने तुडवित , डोंगर दर्‍या पालथी घालत फिरतात अन वरती शिखर सर करण्यासाठी मलाच साद घालून मला थकवितात. कुणी प्रयागाला संगमावर जातो तर कुणी जेजुरीच्या गडावर तर कुणी १०००० पायर्‍यांचा गिरनार सर करायला ! माझ्या लेकरांना कधी कळणार बरे माझी अटाटी, माझी कळकळ ? कधी तुटून पडणार ह्या तेल्याच्या भिंती !

श्रीसाईसच्चरितात साईनाथ स्वमुखे सांगतो ना दासगणूंना प्रयाग तीर्थी पर्व विशेषी जाण्याची अनुमती मागायला साईनाथांकडेच ते गेले असतां , काय वाटले असेल माझ्या साईबाबांना ? साईबाबा वदलेच ना शेवटी
नलगे तदर्थ जाणें दूर । हेंचि आपुलें प्रयागतीर। विश्वास धर दृढ मनीं ।।
आणि आपण पहातो पुढे दासगणुंनी बाबांच्या चरणी मस्तक ठेवितां उभय अंगुष्ठांमधून उदक निथळले होते , ते होते अखंड , सदैव प्रवाहीत असणारे गंगायमुनोदक ! पण मला ते दिसत नाही ? कारण माझा तसा "त्या" च्या चरणी अनन्य भाव, शरणागतीचा भाव नसतो. मला माझ्या भक्तीचे देव्हारे माजवायलाच आवडतात का ? थांबव रे देवा , हे सदगुरुराया मी वर्षभर "एक विश्वास असावा पुरता कर्ता हर्ता गुरु ऐसा " असा जयघोष बेंबीच्या देठापासून ओरडून केला होतो तो व्यर्थच होता का रे ?
नको मला अशी दांभिक भक्ती , आज कळते ती श्रेष्ठ महान साईभक्ताची , आद्य पिप्पलिका पांथस्थ असणार्‍या पिपाची पिपासा , आर्तता - कधी उतरणार माझ्याही मनी ?
पूजा भस्म माळा अंतरंगी काम चाळा  
ऐसा मिळेना सावळा फुका कष्टवितां गळां
 
आज खर्‍या अर्थाने तुझ्याच कृपेने कळले "कुठे शोधिसी रामेश्वर अन कुठे शोधिसी काशी हृदयातील भगवंत राहिला हृदयांत उपाशी " रूद्राक्षांच्या गळ्यात माळा लाविलेस तू भस्म कपाळा --- मी पण असाच बाह्य साधनांत भुललो, बाह्य स्थानां मध्ये "तुला " शोधीत फिरलो अन "तु" मात्र माझ्याच दारी , माझ्याच आनंदघरात , माझ्याच मन मंदिरात अखंड निवास करून वसला आहेस , हेच मी सोईस्कर रीत्या विसरून गेलो होतो. विश्वावरचे तुझे पाऊल तर सतत चालतच राहते माझ्यासाठी , माझ्या सुखासाठी अविरत चालत राहते, धावत राहते कशाची तमा न करीता अनिरूध्द गतीने , अष्टौप्रहर जागेच राहते , आम्ही जरी वासनेच्या कुशी घोरत पडलो तरी , आम्हाला जागे करण्यासाठी अविरत चालतच राहते... किती थकला असशील ना हे माझ्या लाडक्या साईनाथा, हे माझ्या स्वामी समर्थ आजोबा ! आता तरी माझे डोळे खर्‍या अर्थाने उघडू दे , तुझे पाय किती सुजले असतील , तुझे पाय किती दुखत असतील ह्याची कळ माझ्या मनी लागू दे अन आता तरी माझी बुध्दी जागी होऊ दे ,ज्या दिव्य चरणांचे सेवन करायचे , ज्यांचे  तीर्थ प्राशन करायचे त्या तुझ्या दिव्य चरणांना आमच्या अपराधांमुळे, आमच्या चुकांसाठी अशी सूज नको ना रे चढून देऊ.

भले तुझ्या शब्दांचे अर्थ जाणण्या आम्ही अज्ञानी असू , अगतिक असू पण आज तू दाविलेस , स्पष्ट म्हणा अस्पष्ट म्हणा सांगितलेस आता तरी आम्ही तुला सोडून अन्यत्र धाव नाही घेणार हे स्वत:लाच बजावू. 
श्रीवासुदेवानंदस्वामी विरचित करूणात्रिपदीतील बोलांनी  ( श्रीवासुदेवानंद सरस्वतींना आपल्या चुकीच्या वागण्यामुळे श्रीदत्तगुरुंना आपण दु:खी केले ह्याची जाणीव होऊन जे क्षमा प्रार्थिण्या अंतरीचे सूर उमटले होते )

 शांत हो श्रीगुरुदत्ता। मम चित्ता शमवी आता।।ध्रु।।

तू केवळ माता जनिता। सर्वथा तू हितकर्ता।।

 तू आप्तस्वजन भ्राता। सर्वथा तूचि त्राता।।

भयकर्ता तू भयहर्ता। दंडधर्ता तू परिपाता।
तुजवाचुनि न दुजी वार्ता। तू आर्ता आश्रयदाता ।।
शांत हो । शांत हो श्रीगुरुदत्ता...... ।।१।।

अपराधास्तव गुरुनाथा। जरि दंडा धरिसी यथार्था।।

 तरि आम्ही गाउनि गाथा। तव चरणीं नमवू माथा।।

तू तथापि दंडिसी देवा। कोणाचा मग करूं धावा?
 सोडविता दुसरा तेव्हां। कोण दत्ता आम्हां त्राता?
शांत हो । शांत हो श्रीगुरुदत्ता...... ।।२।।

तू नटसा होउनि कोपी। दंडिताहि आम्ही पापी।

पुनरपिही चुकत तथापि। आम्हांवरी न च संतापी।।

गच्छतः स्खलनं क्वापि। असें मानुनि नच होऊ कोपी।
निजकृपा लेशा ओपी। आम्हांवरि तू भगवंता।।
शांत हो । शांत हो श्रीगुरुदत्ता...... ।।३।।

तव पदरीं असता ताता। आडमार्गीं पाऊल पडतां।

सांभाळुनि मार्गावरता। आणिता न दुसरा त्राता।

निजबिरुदा आणुनि चित्ता। तू पतितपावन दत्ता।
वळे आतां आम्हांवरता। करुणाघन तू गुरुनाथा।।
शांत हो । शांत हो श्रीगुरुदत्ता...... ।।४।।

सहकुटुंब सहपरिवार। दास आम्ही हें घरदार।

तव पदी अर्पू असार। संसाराहित हा भार।

परिहरिसी करुणासिंधो। तू दीनानाथ सुबन्‍धो।
आम्हां अघ लेश न बाधो। वासुदे-प्रार्थित दत्ता।।
शांत हो ।
शांत हो श्रीगुरुदत्ता। मम चित्ता शमवी आता।।५।। 

Saturday, 4 March 2017

जैविक दहशतवादाची टांगती तलवार?

दिनांक २१ फेब्रुवारी २०१७ च्या दैनिक प्रत्यक्ष मधील एका बातमीने विशेष लक्ष वेधून घेतले होते . ती बातमी होती जगविख्यात ’मायक्रोसॉफ्ट’ कंपनीचे प्रमुख बिल गेट्स यांनी दिलेला इशारा - जैविक दहशतवाद तीन कोटींचे बळी घेईल ! सिरीयामध्ये गेल्या ६ वर्षांपासून  सुरु असलेल्या संघर्षात सुमारे ४ लाख जणांचा बळी गेला असून सर्व जगभरातून सिरीयातील परिस्ठितीवर चिंता व्यक्त केली जाते. मात्र सिरीयापेक्षाही भीषण अरिष्ट जगावर कोसळणार असल्याचा दावा बिल गेट्स ह्यांनी केला.

जर्मनीच्या म्युनिक शहरात आयोजित करण्यात आलेल्या ’म्युनिक सिक्युरिटी कॉन्फरन्स ’ येथे आमंत्रित केल्या गेलेल्या जगभरातील प्रमुख देशांतील नेते , अधिकारी तसेच व्यापारी व उद्योजक वर्गातील प्रभावी व्यक्तींच्या बैठकीच्या पार्श्वभूमीवर बिल गेट्स यांनी जागतिक सुरक्षेला दहशतवाद्यांपासून असलेल्या धोक्यासंबंधी उहापोह केला. पुढे त्यांनी दहशतवाद्यांचा जैव हल्ला हा अण्विकयुध्द आणि हवामानबदलाच्या परिणामांपेक्षाही अधिक धोकादायक असेल असा इशाराही दिला होता.

ह्यावरून जैविक दहशतवाद (biological terrorism) हा किती भयावह असू शकतो ह्याचे विदारक चित्र नजरेसमोर तरळून गेले आणि त्याचे गांभीर्य , होणारे तात्कालीन व दूरगामी  दुष्परिणाम ह्याच्या संभाव्य जाणीवेने मन अधिकच कातर झाले.

जैविक शस्त्रे अनेक पातळ्यांवर हानिकारक ठरू शकतात . श्वसनातून मानवाच्या शरीरात गेल्यास ही जैविक शस्त्रे बर्‍याच प्रमाणावर हानी करतात वा मृत्युदेखिल घडवून  आणू शकतात. त्वचेच्या संपर्कात आल्याने किंवा अन्नपदार्थातून शरीरात गेल्याने या शस्त्रांचा परिणाम दिसून येतो. ह्या शस्त्रांनी मानवांना, प्राण्यांना आणि वनस्पतींना देखिल हानी होऊ  शकते.



जैविक शस्त्रे सैन्याचे तळ किंवा निर्वासित छावण्यांवरही वापरली जातात व ती वापरण्यामागे शत्रूचा उद्देश्य पिकांवर व गुराढोरांवर हल्ला करून , अन्नधान्याच्या साठ्यात कमतरता आणणे, लोकवस्त्यांवर हल्ला करणे, माणसांचे मानसिक धैर्य कमकुवत करणे व त्यांच्या मनात एक प्रकारची भीती निर्माण करणे हा असतो.

जैविक दहशतवादाच्या आपत्तीचं असं हे भीतीदायक वास्तव आपल्या समोर खडे ठाकले आहे.


सूचना : हा लेख पहिल्यांदा दिनांक ०४ -०३ -२०१७ च्या " दैनिक प्रत्यक्ष " मध्ये व्यासपीठ ह्या सदरात प्रकाशित झाला होता.   


हेमाडपंतजी की सींख - श्रीसाईसच्चरित कैसे सुनना ?


ॐ कृपासिंधु श्रीसाईनाथाय नम: ।
मार्च माह जैसे ही शुरु हो जाता है सारी तरफ परीक्षा का माहोल बनने लगता है , दसवी , बारहवी के बोर्ड की परीक्षा , उसके बाद में स्कूल की परीक्षा । सब मां - बाप अपने अपने बच्चों को पढाई करने के लिए बार बार चेतावनी देने लगतें हैं , कई घरों से यह आवाज कानोंपर पडती है - कितने देर से कहे जा रही हूं पढाई करो , पढाई करो और एक तुम हो , तुम सुनते हो या नहीं ?
आखिर यह सुनना क्या होता है? एक बार , दो बार , तीन बार अगर मां या पिताजी ने पढाई करने के लिए आवाज दी है , तो बच्चा सुन तो लेता ही है , उनकी आवाज , उनकी डांट उसके कानों पर सुनाई तो देती है , किंतु उस
बात को सुनकर वो अनसुनी कर जाता है, उस पर ध्यान देकर अपने आचरण में नहीं लाता याने वो बच्चा पढाई करने नहीं बैठ जाता, या बात सुनकर भी खेल-कूद में ही मगन रह जाता है या टी व्ही देख रहा है तो वो बंद करके पढाई करने नहीं बैठ जाता । 
यहां जैसे मां - पिताजी को अपेक्षा है कि बच्चा उनकी बात सुनकर अपने कृती से जबाब दे या बतला दे कि उसने उनकी बात सुनकर उस पर गौर भी फर्माया है ।

‘सुनना’ अर्थात श्रवण करना उसी प्रकार ‘सुनना’ अर्थात उसके अनुसार आचरण करना यह भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। मैंने आवाज ‘सुनी’ इस में से सुनना यह अर्थ तो यहाँ पर है ही पर इसके साथ ही यदि किसी को हम कुछ कहते हैं, और कहने के बाद ही वह उसके अनुसार आचरण नहीं करता है तब हम उसे कहते हैं कि तुम्हें कहने पर भी तुम मेरी बात नहीं ‘सुनते’ हो इस में ‘सुनना’ भी बहुत महत्त्वपूर्ण है।

यही बात हेमाडपंतजी हमें श्रीसाईसच्चरित में सिखलातें हैं कि मेरे साईबाबा की कथाएं इस तरह पढिए और सुनिए भी की जिससे मेरे साईबाबा के शब्द तुम्हारे कानों में सदैव गूंजतें रहें , तुम्हें साईबाबा कीं सींख हमेशा याद आये । 
हमेशा हमें लगता है कि हम तो रोज श्रीसाईसच्चरित की कथा पढतें हैं याने हमें तो साईबाबा के बोल याद हैं , पर क्या यह सही मायनो में सच होता है ? कितने सारे खुद को साईबाबा के भक्त कहने वाले श्रध्दावान लोग श्रीसाईसच्चरित पढने के बावजूद भी हर गुरुवार को उपास रखतें हैं , पूरे दिन में कोई कोई तो बिलकुल अन्न -जल भी ग्रहण नहीं करतें , उपर से कहतें हैं मैंने साईबाबा के लिए उपास किया, व्रत रखा ? मुझे तो बडा अचरज होता है कि अगर मैं साईबाबा को अपना भगवान मानता हूं या अपना सदगुरु मानता हूं तो मुझे उनकी हर एक बात को मानना ही चाहिए । फिर साईबाबा ने उपास रखने से मना किया है , भूखे पेट भगवान प्राप्त नहीं होता यह सींख दी है बार बार । पहले तो राधाबाई को बतलाया था अध्याय १९ में जिनकी कथा आती है और हम पढतें हैं , क्या सच में सुनतें हैं ? मेरे साईबाबा, हमारे साईबाबा हमए क्या कह रहें हैं ?
साईबाबा को पता है बच्चे है , गलतियां तो करेगे हीं , इसिलिए साईबाबा अध्याय ३२ में खुद की कहानी बतातें हुए फिर एक बार यही सींख दोहरतें हैं - चार शिष्यों की कहानी - सदगुरु किसे प्रसन्न होते हैं , किसे अपनी पाठशाला में दाखिल करवातें हैं ?

इस बारे में मुझे एक कहानी याद आ रही है जो मेरे सदगुरु डॉक्टर अनिरूध्द जोशीजी ने बतलायी थी कि साईभक्ती आचरण में कैसे लानी चाहिए ?
द्वारकामाई पाध्ये नामकी एक साईबाबा की भक्त थी, उनकी उनके साईबाबा पर बडी श्रध्दा थी , साईबाबा के दर्शन के लिए वो अपने पती गोपीनाथशास्त्री पाध्येजी के साथ हमेशा जाती थी , वो भी पैदल चलकर । उस जमाने में रईस होने के बावजूद भी उन दोनों पती -पत्नी का भाव बहुत ही सुंदर था साईबाबा के प्रति , इसिलिए वे दोनों अपने सदगुरु के दर्शन में पैदल जाते थे , कोई बड्ड्पन नही, कोई दिखावा नही, कोई अपने पैसों का मान नहीं । इतना ही नहीं बल्कि शिरडी के नजदीक पहुंचने पर और शिरडी के सीमा के अंदर पहला कदम रखने के बाद तो वह साईबाबा को लोटांगण करते हुए मसजिद तक जातें थे, यह मिट्टी इतनी पावन है, जहां पर मेरे साईबाबा के पैर पडें हैं , इस मिट्टी का तो मुझे तिलक ही करना चाहिए , देखिए कितना सुंदर भाव अपने सदगुरु के प्रति, अपने साईबाबा के चरणों की धूल के प्रति । वो दिन भी गुरुवार था,  जब द्वारकामाई ने पहली बार श्रीसाईसच्चरित पढने लिया था ।  उस वक्त उनका गुरुवार का उपास था , व्रत था जो वह बरसों से कर रही थी और राधाबाई की कथा पढने में आयी - मेरे साईबाबा ने उपास करने से मना किया है ।  शांत मन से उन्होंने कुछ सोचा और पास में ही घर के छोटे बच्चे खेल रहे थे और चकली खा रहे थे , उनके पास जाकर चकली का एक छोटा टुकडा तोडकर मुंह में नेवला डाला और अपना उपास छोड दिया ।  आगे जाकर कभी उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी में कोई भी उपास नहीं रखा , ना उस दिन भी उपास छोडने का कोई अफसोस मनाया, ना मन में वो दुखी हो गयी ।  चाहे मुझे कोई कुछ भी कहे , लेकिन जो बात मेरे साई को पसंद नहीं वो बात मैं कभी नहीं करूंगी , क्या दूढ विश्वास था उनका अपने साईबाबा के चरणों में ।  मैं तो जानकर दंग रह गयी सच में मुझे ऐसी ही भक्ती करनी सिखनी है, मेरे साईबाबा की, मुझे ऐसे ही उनके हर इक शब्द का पालन करना है अपनी पूरी जिंदगीभर ।       
 
मेरे साईबाबा के शब्द को कैसे सुनना चाहिए इस के बारे में मैंने एक बहुत ही सुंदर लेख पढा जिस में लेखक महोदय ने बहुत ही अच्छी तरह समझाया है के साईबाबा के शब्द किस तरह सुनना चाहिए और श्रीसाईसच्चरित को सही मायने में कैसे सुनना चाहिए ?
लेखक जी कहतें हैं कि -
साईसच्चरित की कथाओं को हम कानों के साथ-साथ मन से सुनकर उसके अनुसार आचरण करते हैं इसका अर्थ यह होगा कि हमने उसे सुना। इन कथाओं के माध्यम से बाबा जो कह रहे है, वह मुझे सुनना चाहिए। उदाहरणार्थ – राधाबाई की कथा सुनते समय हमें बाबा जो श्रद्धा-सबूरी का महत्त्व बता रहे हैं, उसे सुनना चाहिए। नहीं तो राधाबाई की कथा सुनने के बाद यदि मैं भी कहता हूँ कि, ‘मैं अन्न-पानी छोड़कर बाबा से गुरुमंत्र लूँगा यह उचित नही हैं, इसका अर्थ यह हुआ कि मैंने उस कथा को सुना ही नहीं। यदि इस कथा में बाबा स्वयं श्रद्धा-सबूरी का गुरुमंत्र हर किसी को दे रहे हैं तो बाबा के मुख से मिलने वाला यह गुरुमंत्र ही नहीं क्या? यह गुरुमंत्र सुनना एवं श्रद्धा-सबूरी का पालन करना अर्थात यह कथा सुनना।

मुझे यह बात सच में बहुत ही अच्छी एवं महत्त्वपूर्ण लगी और मैंने अपने जीवन में इस तरह से श्रीसाईसच्चरित पढने की और सुनने की बत ठान ली और शुरुवात भी  की , तब जाकर जाना कि हेमाडपंतजी के ओवी का क्या मतलब  है -
सुनते ही उसे हो सावधान।
अन्य सुख तृण समान ।
भूख-प्यास का हो शमन।
संतुष्ट हो जाये अन्तर्मन। 

हमारे साईबाबा हम भक्तों के जीवन में चार तत्त्व प्रवाहित करना चाहतें हैं और मेरे "श्रीसाईसच्चरित " को सुनने  से मेरी जिंदगी में यह प्रवाहित होते भी हैं –
१)सावधानी, २)आनंद, ३)पूर्णता/परिपूर्ती, ४)समाधान/संतुष्टि

देखिए साईबाबा के एक श्रेष्ठ भक्त चोलकर जी कथा हम पढतें हैं , उन्होंने तो साईबाबा को देखा भी नहीं था । सिर्फ दासगणू जी के कीर्तन के दौरान उन्होंने साईबाबा का गुणगान सुना था , पर वो इतने प्यार से सुना था कि उससे उनके जिंदगी में साईबाबा को अपना लिया , उनपर भरोसा किया, साईबाबा के चरणों में अटूट और अडिग श्रध्दा भी रखी और सबूरी भी रखी । परिणाम तो हम ने पढा भी और जाना भी कि कैसे साईबाबा ने उनकी जिंदगी में  १)सावधानी, २)आनंद, ३)पूर्णता/परिपूर्ती, ४)समाधान/संतुष्टि इस चारों चींजो को भर दिया ।

साईबाबा के चरणों मे विश्वास रखकर चोलकर जी ने पढाई करके परीक्षा देने की सावधानी बर्ती तो परीक्षा में पास करने का आनंद  साईबाबा ने उअनके जीवन में भर दिया ।  उनकी सरकारी नौकरी पक्की हो गयी , यह पूर्णता मिली और साईबाबा के शिरडी में जाकर दर्शन करने पर साईबाबा मे स्वंय उन्हें नाम लेकर पुकारा और उन्होंने मानी हुई मन्नत और मन्नत न पूरी कर पाने पर छोडी हुई शक्कर , इन सब बातों का साईबाबा ने एहसास भी दिलाया और कितना बडा अनुग्र्ह भी किया । 

चलिए तो श्रीसाईसच्चरित कैसे पढना है और सुनना भी है यह अधिक स्वरूप से जानने की कोशिश करतें है , लेख पढकर -

  
ॐ साईराम

प्रत्यक्ष मित्र - Pratyaksha Mitra

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