Friday, 19 May 2017

जवानांचे आजारपणामुळे मृत्यु - गंभीर बाब !

दैनिक प्रत्यक्षच्या दिनांक ३ मे २०१७ रोजीच्या अंकातील "नक्षलविरोधी मोहिमेतील ३६११ जवानांचा आजारपणामुळे मृत्यु" ही  खरोखरीच दखल घेण्याजोगी गंभीर बाब आहे.आपले सैनिक म्हणा जवान म्हणा हे देशप्रेमापोटी आपले प्राण तळहाताच्या शिरावर घेऊन  आपल्या  भारतभूमीच्या संरक्षणासाठी सिध्द होऊन आपले कार्य बजावीत असतात. शत्रूशी लढताना शहीद होणे ही गोष्ट प्रत्येक सैनिकासाठी आत्मसन्मानाची गोष्ट असते. या जवानांच्या अन्न, वस्त्र , निवारा ह्या सारख्या मूलभूत मानवी गरजांसह त्यांना आघाडीवर उच्चस्तरीय वैद्यकीय सोयी उपलब्ध करून देण्याची गरजही स्पष्ट झाली आहे. आजारपणामुळे सैनिक जीवनाला मुकले असल्याचे वृत्त वाचून खूप दु:ख झाले.

गृहमंत्रालयाकडून मिळालेल्या माहितीच्या आधारे नक्षलविरोधी मोहिमेत ’सीआरपीएफ़’, ’सीमा सुरक्षा दल’, ’आयटीबीपी’, ’एसएसबी’, ’सीआ्यएसएफ’, ’एनएसजी’ आणि ’आसाम रायफल’ चे जवान तैनात करण्यात आले आहेत. यातील १०६७ जवान नक्षलवाद्यांविरोधातील कारवाईत शहीद झाले आहेत तर ३,६११ जवानांचा आजारपणामुळे मृत्यु झाला असल्याची आकडेवारी समोर आली. यावरून शहीद जवानांपेक्षा आजारपणामुळे मृत्यु पावणार्‍या जवानांचे प्रमाण तिपट्टीपेक्षासुध्दा अधिक असल्याची धक्कादायक गोष्ट लक्षात येते. म्हणूनच संबंधित बातमीत मांडण्यात आलेली आकडेवारी ही बाब खरोखरीच चिंताजनक आहे असे वाटते.

नुकत्याच सुकमा येथे २४ एप्रिल रोजी झालेल्या नक्षलवाद्यांच्या हल्ल्यात आपले २५ जवान शहीद झाले ही खूपच दु:खद बातमी वाचून मन सुन्न झाले होते. देशाच्या सीमांवरील संरक्षणाच्या बरोबरीने  अंतर्गत शत्रूंच्या कारवायांनाही सैनिकांना तोंड द्यावे लागत आहे. २४ एप्रिलच्या घटनेनंतर आज सुमारे दोन आठवड्यांचा कालावधी लोटला आहे. माझ्या घरचे माझी काळजी करीत असतील आणि  तरीही मी सुखरूप ( जिवंत) आहे  ही गॊष्ट माझ्या घरी मी अजूनही कळवू शकत नाही येथील वायरलेस लोकल लूप (WLL) च्या फोनवरून . फोनला नेटवर्क मिळत नसल्यास सुकमा . साऊथ छत्तीसगड सारख्या संवेदनशील नक्षलग्रस्त भागात तैनात जवानांच्या दळणवळणात तर अडथळा येतोच . पण , त्यांना स्वत:ची खुशाली घरी कळविणेही शक्य होत नसल्याचे जाणून चिंता वाटते. आपण शहरांमध्ये , गावागावांमध्ये ४जी , ३जी नेटवर्क पोहचले अशा जाहिराती बघतो अशा परिस्थितीत नक्षलग्रस्त भागात आवश्यकता असतानाही मोबाईल सिग्नल पोहचत नसल्याचे वाचून मनाला प्रश्न पडला, की खरेच आज आपण म्हणतो तशी आणि तेवढी आपली प्रगती वास्तविक पातळीवर झाली आहे का ? आणि या प्रगतीचा योग्य वापर होत आहे का?



आरोग्यासाठी झुंज :

सुकमा . साऊथ छत्तीसगड येथील बुरकपाल गावाजवळील कॅम्पमध्ये पोस्टींग झालेल्या जवान सामोरे जात असलेल्या विपरित परिस्थितीची माहिती वाचून मन गलबलते - १५० जवान तेथे तैनात आहेत पण तेथे वसतिगृह नाही , झोपायला पुरेशा गाद्या नाही , त्यांचे वैयक्तिक सामान ठेवायला व्यवस्था नाही.

परंतु त्याही पेक्षा भयाण वास्तव म्हणजे तेथील झाडाझुडूपांमुळे आणि किड्यांपासून होणारा त्रास . शरीराच्या त्यामुळे उठणारे रेशेस जवानांसाठी त्रासदायक ठरतात. भर जंगलात तैनात असताना जवानांना तत्काळ डॉक्टर भेटणे मुश्कीलच. चारी बाजूंनी नक्षलवाद्यांचा धोका असलेले जंगल पसरले असताना कोणी    जवान अजारी पडलाच तर लागलीच डॉक्टरपर्यंत पोहचणे शक्य होत नाही. अशा ठिकाणी जवानांना रूग्णाला पायी किंवा गाडीने घेऊन डॉक्टरपर्यंत  पोहोचण्यासाठी वाटेत नक्षलवाद्यांचा धोकाही संभवतो. एकूण परिस्थिती म्हणजे , कोणी आजारी पडलेच तर त्याला फक्त देव किंवा हेलिकॉप्टरच वाचवू शकते.  प्रत्येक महीन्याला एखादा तरी जवान मलेरीयाने आजारी होऊन अंथरूणाला खिळत असेल तर परिस्थिती बिकटच म्हणावी लागेल. म्हणजेच आपल्या जवानांना शत्रूशी लढण्याआधी स्वत:च्या आरोग्यासाठी लढावे लागत असल्याचे जाणवते. 

"भारतीय नागरीकाचा घास रोज अडतो ओठी सैनिक हो तुमच्यासाठी " असे गाजलेले गीत कानी पडायचे युध्दाच्या काळी किंवा १५ ऑगस्ट आणि २६ जानेवारीच्या दिवशी, खरेच ह्याची आठवण आज आल्यावाचून  रहावत नाही . आपला सुजाण नागरीकांचा घास खरेच अडकतो का ? ह्याचा आपणच विचार करायला हवा आणि जमेल तसे आपापल्या परीने आपण भारतीयांनी आपल्या सैनिकांसाठी आपले योगदान द्यायलाच हवे आणि आपल्या जवानांच्या आरोग्यासाठी सरकारने अधिक ठोस पावले उचलायलाच हवी असे आवर्जून म्हणावेसे वाटते.  
सूचना - "जवानांचे आजरपणामुळे मृत्यु - गंभीर बाब " हा लेख दैनिक प्रत्यक्षच्या दिनांक १५ मे २०१७ च्या अंकात "व्यासपीठ" ह्या सदरात पान क्रमांक ८ वर प्रथम छापून आला होता.  
  
      

Saturday, 13 May 2017

मेरे साईनाथ का निजकर - मेरे साईनाथ मेरे साथ हमेशा है ही - मन को तसल्ली !

हेमाडपंत बहुत ही विनयपूर्वक हमे बतातें हैं कि मेरे सिर पर मेरे सदगुरु श्रीसाईनाथ का निजकर था इसिलिए श्रीसाईसच्चरित यह एक महान अपौरूषेय ग्रंथ का निर्माण हो सका, इसमें  मेरा खुद का कोई भी बडपन नहीं हैं । मेरे सिर पर मेरे साईबाबा ने अपना निजकर रखा , इतना ही नहीं बल्कि वो यह बात की पुष्टी भी करवातें हैं यह लिखकर -
‘साधु संत अथवा श्रीहरि। किसी श्रद्धावान का हाथ पकड़कर
अपनी कथा स्वयं ही लिखते हैं। अपना हाथ उसके सिर पर रखकर॥


                                                                         
ॐ कृपासिंधु श्रीसाईनाथाय नम:
श्रीसाईनाथ ने हेमाडपंतजी को भले ही ग्रंथ लिखने की अनुमति दी थी पर स्वंय यह बात भी कही थी कि-
‘‘मेरी कथा मैं ही कथन करूँगा। मैं ही भक्तेच्छा पूरी करूँगा।
इस कथा से अहं-वृत्ति दूर हो जायेगी। टूटकर बिखर जायेगा अंहकार मेरे चरणों में॥

‘‘बस्ता रख दो यही ठीक होगा। उसे मुझसे पूरी सहायता
वह तो है केवल निमित्त-मात्र। लिखूँगा मेरी कथा मैं ही।’’


बाबा कहते हैं कि इस चरित्र से हम मानवों के अहंकार का पूर्ण रूप से नाश हो जायेगा। जब उस मनुष्य के अहंकार का पूर्ण रूप से नाश हो जाता है, तब उसका ‘मैं’ खत्म होकर वहाँ पर केवल परमात्मा का ‘मैं’ ही होता है।

साईनाथ कहते हैं-

मनुष्य की अहंवृत्ति जब नष्ट हो जाती है। तब उस मनुष्य का कर्तापन भी खत्म हो जाता है।
‘मैं’ ही तब ‘मैं’ संचार करता हूँ। मेरे ही हाथों लिखूँगा मैं।


यही साईबाबा ने कही हुई बात हेमाडपंतजी ने सिर्फ सुनी नहीं थी बल्कि  पूरी तरह महसूस भी की थी याने श्रीसाईबाबा के "सुनना" शब्द का अर्थ अपने जीवन में भी प्रवाहित किया था - साईबाबा ने कहा , मैंने सुना और वही बात पर गौर फर्माकर मैंने मेरे आचरण में भी लाने की कोशिश की । पूरे श्रीसाईसच्चरित में हेमाडपंत यही सच बात बार बार दोहराते रहतें हैं कि यह ग्रंथ स्वंय श्रीसाईबाबा ने मुझे अपनी कलम बनाकर लिखवाया है मुझसे , मेरे हाथ तो सिर्फ निमित्त मात्र लिख रहे थे किंतु साईबाबा की कथा खुद उन्होंने ही लिखी है ।

पहले तो श्रीसाईसच्चरित बहुत बार पढा था तब यह बात सही मायने में समझ में नहीं आती थी , लगता था कि साईबाबा स्वंय बता रहें हैं -
मनुष्य की अहंवृत्ति जब नष्ट हो जाती है। तब उस मनुष्य का कर्तापन भी खत्म हो जाता है।
‘मैं’ ही तब ‘मैं’ संचार करता हूँ। मेरे ही हाथों लिखूँगा मैं।
 इसका मतलब क्या है , अगर साईबाबा ने ही ग्रंथ लिखा है तो साईबाबा ने हेमाडपंतजी को अपना चरित्र लिखने की अनुमति भी दी ऐसा भी पढने में आता है , अगर साईबाबा ने ग्रंथ स्वंय ही लिखा तो हेमाडपंत अपने आप को लेखक नहीं बता सकतें । पर आज एक लेख पढकर वह उलझन आसानी से सुलझ गयी ।       
http://www.newscast-pratyaksha.com/hindi/shree-sai-satcharitra-adhyay2-part18/
मानव के सिर पर परमात्मा के निज-कर का होना इसका अर्थ क्या है?

परमात्मा का हाथ जहाँ पर है वहाँ पर वे परमात्मा संपूर्णत: होते ही हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि मेरे भगवान सदैव मेरे साथ होते ही हैं, यह भाव रखना ही परमात्मा का निज-कर कहलाता है। भले ही फ़िर वे हमें दिखाई दे अथवा न दिखाई दें, ‘वे’ वहाँ पर होते ही हैं।

यह भाव हेमाडपंत में रोम रोम में बसा हुआ था , इसिलिए अद्याय ४० में हम पढतें हैं कि साईबाबा ने सपने में सुंदर संन्यासी रूप में आकर दर्शन देकर बताया कि आज होली पूर्निमा के दिन मैं तुम्हारे घर भोजन के लिए आ रहा हूं  , तो हेमाडपंतजी ने पूअपनी बीबी न मानने पर भी उसे समझा बुझाकर खाना जादा पकाया , राह भी देखी और बाबा के तसबीर रूप में आनेको स्वंय बाबा मानकर खुशी भी मनाई थी ।    

यह उपर बताये गए लेख में लेखक महोदय ने बहुत सरल बात कही है कि -

परमात्मा का  निज-कर वैसे तो हर एक जीव के सिर पर होता ही है, लेकिन श्रद्धाहीन मानव को परमात्मा के उस निज-कर का एहसास नहीं होता है; वहीं यह एहसास जिस मनुष्य को हो जाता है, उसका जीवन धन्य हो जाता है।

हर एक मनुष्य के सिर पर इस परमात्मा का निजकर सदैव होता ही है यह बात हमें विश्वास दिलाता हैं कि परमात्मा कहो या भगवान होता हैं और वह मेरे साथ ही होता हैं ।


लेकिन इस बात का हम गलत इस्तेमाल करें और अपने काम से मुंह मोड ले या अपना काम छोडकर भगवान के सहारे हाथ पर हाथ धरे बिना काम के बैंठे रहूं , तो यह बात बिलकुल गलत हैं ।    
लेखक महाशय इस बात को हमें आम जिंदगी के किस्से सुनाकर समझातें हैं -
अगर कोई इंसान गलती से या जान बूझकर काम करने से अपने आप को छिपा रहा हैं और कह रहा है कि जब साक्षात् परमात्मा ने मेरे सिर पर निजकर रखा ही है तो फ़िर मेरा क्या काम? यदि परमात्मा का निजकर मेरा हर एक उचित कार्य करने वाला है तो फ़िर मुझे मेहनत क्यों करनी है?

हम इंसान अगर गलत बात को अपनाकर यह कहें कि मैं स्कूल में न जाकर घर पर ही बैठूँगा तो मेरा पेपर स्कूल में लिख लिया जायेगा (मेरा भगवान लिखेगा या लिखवाये गा )अथवा मैं बिलकुल भी पढ़ाई किए बिना ही जाऊँगा और तब भी मैं अपना पेपर व्यवस्थित रूप में लिखूँगा? मेरे थाली को छुए बगैर ही खाना अपने आप ही मेरे मुँह में जायेगा? तो ये बातें होने से रह गयी ।

लेखक महोदय स्पष्टता से बतातें हैं कि ऐसा कदापि नहीं होगा। क्योंकि सदैव कार्यरत रहनेवाले भगवान को मानवों की ओर से केवल उस मानव के द्वारा किये जाने वाले प्रयासों की एवं परिश्रम की अपेक्षा रहती है और किसी भी उचित कार्य के लिए परिश्रम करना यही पुरुषार्थ है।

जिस पल मेरा परिश्रम शुरू होता है, तब यह निज-कर कार्यशील (अ‍ॅक्टीव ) हो जाता है। जब मैं अपना परिश्रम रोक देता हूँ उसी क्षण वह निज-कर साक्षी बन जाता है। जब पुन: मेरा परिश्रम शुरू होता है उस क्षण अ‍ॅक्टीव हो चुका यह निज-कर फ़िर मुझे हर एक कार्य में उचित मार्गदर्शन देकर मेरा हर एक कार्य सुफ़ल एवं संपूर्ण बनाता है। और फ़िर जब मैं स्वयं अभ्यास करता हूँ, व्यवस्थित रूप में स्कूल जाता हूँ, तब मुझे मेरी पढ़ाई में मदद करने से लेकर, परीक्षा के समय मेरा पेपर पूरा करवाकर मुझे उत्तीर्ण करने की जिम्मेदारी यह निज-कर ही उठाता है। मैं जब उचित मार्ग पर चलकर परिश्रम करके पैसा कमाता हूँ, तब मुझे यही निज-कर कभी भी भूखा नहीं रखता।

चोलकरजी की कथा हमें दिखलाती है कि साईबाबा को मन्नत मांगने के बावजूद वो  साईबाबा देख लेगा , वो ही मुझे परीक्षा में पास करवायेगा ऐसी गलतफहमी में फंस नहीं जाते । वो अपनी पढाई करतें हैं , परीक्षा भी दे देतें हैं और फिर साईबाबा की कृपा से वो परीक्षा में पास  भी हो जातें हैं । यहां पर चोलकरजी के सिर पर साईबाबा का निजकर था ही और उन्हेम उस बात का एहसास भी था ।


वहीं दूसरी कथा रघुनाथराव और सावित्रीबाई तेंडूलकर का लडका बाबू वैद्यकीय पाठशाला में पढता है फिर परीक्षा देने से मना कर देता है । उसके पिता- माता साईबाबा साईबाबा के भक्त है और सावित्रीबाई अपनी इस परेशानी को लेकर  साईबाबा के पास आतीं हैं ।  साईबाबा उसके बच्चे को अपनी बातों से विश्वास दिलातें हैं कि मैं हू तुम्हारे साथ, जोतिषी के बातों पर यकीन मत करना । पर परीक्षा देने तो (तुम्हे )जाना ही होगा ।  बाबू विश्वास रखकर पहली परीक्षा दे देता है और फिर विश्वास गंवाकर फिर घर बैठ जाता है । फिर साईनाथ उसे परिचित व्यक्ती द्वारा संदेश देकर फिर से परीक्षा में जाने को प्रेरीत करतें हैं ।
   
इन दो कथाओं से हमें यह बात समझ में आती हैं कि मेरे भगवान सदैव मेरे साथ होते ही हैं, यह भाव रखना ही परमात्मा का निज-कर कहलाता है। भले ही फ़िर वे हमें दिखाई दे अथवा न दिखाई दें, ‘वे’ वहाँ पर होते ही हैं।
 

Friday, 5 May 2017

मेरे सदगुरु श्रीसाईनाथ का निजकर याने श्रीसाईसच्चरित का निर्माण - हेमाडपंतजी का एहसास !

ॐ कृपासिंधु श्रीसाईनाथाय़ नम: । का

श्रीसाईसच्चरित यह एक महान अपौरूषेय ग्रंथ है । अपौरूषेय ग्रंथ याने परमेश्वर के आविष्कार से जो ज्ञान अपने आप सहजता से प्राप्त हो जाता है और उस ज्ञान से जो ग्रंथ निर्माण होता है ऐसा ग्रंथ ! चारो वेद , श्रीमद्भगवद्गीता , भागवत , ज्ञानेश्वरी , श्रीसाईसच्चरित ये सारे अपौरूषेय ग्रंथ है ।

हेमाडपंत पूर्णत: विनयशील थे और ‘इस संपूर्ण चरित्र के कर्ता एवं करवाने वाले मेरे सद्गुरु श्रीसाईनाथ ही हैं’ इस बात का पूरा-पूरा एहसास उन्हें था। इसिलिए हेमाडपंत  बार बार यह बात दोहरातें हुए नहीं थकतें हैं कि श्रीसाईसच्चरित यह मैंने नहीं लिखा बल्कि मेरे सदगुरु श्रीसाईनाथ ने ही लिखवाया  है मुझसे , मेरे साईबाबा का निजकर मेरे सिर पर था इसिलिए यह ग्रंथ लिखा गया ।

हेमाडपंतजी  के मन में कभी भी यह बात नहीं आयी कि यह  ग्रंथ मैं खुद लिख रहा हूं ।सत्य एवं वास्तव की स्मृति हेमाडपंत के मन में कितनी जागृत है, यह बात श्रीसाईसच्चरित के एक लेख को पढकर समझने में आसानी हो जाती है -
http://www.newscast-pratyaksha.com/hindi/shree-sai-satcharitra-adhyay2-part17/


अध्याय २ में हेमाडपंत लिखतें हैं -
‘साधु संत अथवा श्रीहरि। किसी श्रद्धावान का हाथ पकड़कर ।
अपनी कथा स्वयं ही लिखते हैं। अपना हाथ उसके सिर पर रखकर॥

ॐ कृपासिंधु श्रीसाईनाथाय़ नम: ।

इस ओवी के बारे में उपर निर्देशित लेख में लेखक महोदय बतातें हैं कि ‘निजकर सिर पर रखकर’ (अपना हाथ उसके सिर पर रखकर) इस बात का अनुभव हेमाडपंत को अच्छी तरह स हो चुका था। जब तक उस साईनाथ का हाथ मेरे सिर पर है, तब तक मेरी लेखनी चलती रहेगी। केवल लेखनी ही नहीं बल्कि मेरा हाथ, मन एवं बुद्धि इन्हें भी वे ही चलानेवाले हैं; इसीलिए ‘सद्गुरु साईनाथ का मेरे सिर पर रहनेवाला हाथ’ यही इस चरित्र-लेखन की सच्चाई है।

यहां पर लेखक हमें संत ज्ञानेश्‍वरजी की कथा सुनाकर दिखलातें हैं कि  परमात्मा का निज-कर (अपना हाथ) कैसे होता है?
संत ज्ञानेश्‍वरजी का उपहास करना चाहनेवाले कुछ लोगों ने ज्ञानेश्‍वर को उन्हीं के नाम का भैंसा दिखलाकर ‘इसका नाम भी ज्ञाना है, तो क्या यह भैंसा वेदमंत्रों का उच्चारण कर सकेगा?’ इस प्रकार का प्रश्‍न किया।
ज्ञानेश्‍वरजी ने अपनी कृति से ही उन्हें उत्तर दिया। जिस पल उस भैंसे के सिर पर ज्ञानेश्‍वरजी ने अपना हाथ रख दिया, उसी क्षण वह भैंसा वेदों की ऋचाओं का पाठ करने लगा। परन्तु यह तब तक ही होता रहा जब तक उस भैंसे के सिर पर संत ज्ञानेश्‍वर का हाथ था। जिस क्षण उन्होंने उस भैंसे के सिर पर से अपना हाथ उठा लिया, उसी क्षण उस भैंसे का बोलना बंद हो गया।

यही है उस परमात्मा का निजकर और यह कथा निश्‍चित ही हेमाडपंत को अच्छी तरह से याद थी। इसीलिए साईनाथ ने उनके सिर पर रखे हुए अपने निज-कर का यानी साई के हाथ का हेमाडपंत को सदैव स्मरण रहा।

हेमाडपंत कभी भी अंहकार से या गर्व से श्रीसाईसच्चरित ग्रंथ मैंने  लिखा ऐसे कहते हुए हमें पूरे श्रीसाईसच्चरित में , पूरे के पूरे ५२ अध्यायों में एक बार भी नजर नहीं आता , बल्कि वो हर बार इसी बात को बताते हैं कि मेरे साईनाथ ने मेरा हाथ पकडकर , मुझे अपनी कलम बनाकर यह ग्रंथ लिखवाया है ।
साईनाथ ही स्वंय लिखनेवाले भी है , और लिखवा लेनेवाले भी है यह हेमाडपंत की भावना है और उसे वह अध्याय ३ में बयान करतें हैं -
कैसा बजेगा पावा या पेटी इस की चिंता मैं नहीं करता , बल्कि यह चिंता मेरे साईनाथ करतें हैं ।

अध्याय ३२ में हेमाडपंत लिखतें हैं -
हेमाड साईंसी शरण । अपूर्व हें कथानिरुपण । 
साईच स्वयें करी जैं आपण । माझें मीपण फिकें तैं ।। १६९।।
तोच या कथेचा निवेदिता । तोच वाचिता तोच परिसता । 

तोच लिहिता आणि लिहविता । अर्थबोधकताही तोच ।।१७० ।।
साईच स्वये नटे ही कथा । तोच इये कथेची रुचिरता । 

तोच होई श्रोता वक्ता । स्वांनदभोक्ताही तोच ।। १७१ ।।
अध्याय ४० में हेमाडपंत लिखतें हैं -
तोचि कीं साई अनुमोदिता । तोच तो माझा बुध्दिदाता ।
तोच मूळ चेतना चेतविता । तयाची कथा तोच करी ।। १३।।
कीं हा हेमाड निजमतीं । रचितो हा विकल्प न धरा चित्तीं । 

म्हणोनि श्रोतयां करितो विनंती । गुणदोष माथीं मारूं नका ।।१४ ।।
गुण तरी ते साईचे । दोष दिसलिया तरीते त्याचे । 

मी तो बाहुलें साईखड्याचें । आधारीं नाचें सूत्राच्या ।। १५।।
सूत्रधाराहातीं सूत्र । त्याला वाटेल तें तें चित्र ।

रंगीबेरंगी अथवा विचित्र । नाचवील चरित्रसमन्वित ।। १६ ।।

स्पष्ट्ता से हेमाडपंत इसी बात को उजागर करतें हैं कि साईनाथ ने ही मुझे अनुमोदन दिया ग्रंथ लिखने के लिए, साईनाथ ही मेरे बुध्दी में मैं क्या लिखूं इस बात को दाता बनाकर प्रदान करतें हैं , वो ही मुझ में ग्रंथ लिखने की चेतना जागृत करवातें हैं , श्रीसाईनाथ जी खुद ही अपनी कथा आप बता रहें हैं , इसिलिए हेमाडपंत अपनी मती से  , अपनी बुध्दि से लिख रहें हैं ऐसा विकल्प अपने मन में तनिक भी आने मत दिजिए । मैं तो सिर्फ मेरे श्रीसाईनाथ के हाथों की कठपुतली हू , वो मुझे जैसे नचाने चाहतें हैं वैसे ही मैं नाचता हूं , उनके सूत्रों के अनुसार ।

और यही है उस सत्य एवं वास्तव को देखने की हेमाडपंत की दृष्टि। परमात्मा का निजकर सिर पर पड़ते ही जब भैंसा भी बोलने लगता है, तो वहाँ मनुष्य का बोल सकना यह स्वाभाविक बात है, इसका हेमाडपंत को सदैव स्मरण था और इसीलिए बाबा ने हेमाडपंत से स्वयं का चरित्र लिखवाया।

ॐ साईराम .

प्रत्यक्ष मित्र - Pratyaksha Mitra

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