हेमाडपंत की शिरडी में श्री साईनाथ से हुई पहली मुलाकात यह उनके जीवन को पूरी तरह से बदल देनेवाली एक महत्त्वपूर्ण घटना थी । उन्होंने यह महसूस किया था कि मेरे साईनाथ का , मेरे सदगुरु का प्रेम कितना अकारण (बिना वजह ) होता है, बिना किसी लाभ से किए हुए प्यार की एक अत्यंत सुंदर अनुभूती के वे साक्षी बने थे । हेमाडपंत ही हमें उस अद्भुत तत्त्व को विशद करतें है कि भक्तिमार्ग में भक्त यह भगवान के पास नहीं जाता बल्कि भगवान ही भक्त के पास आते हैं। भगवान जब मेरे पास आते हैं, उस समय ‘उठकर बैठने में’ देर नहीं करनी चाहिए। जो भगवान की दिशा में प्रथम कदम उठाता है, उसके कदम उठते ही भगवान सौ कदम चलकर उसके पास आ पहुँचते हैं। बाबा स्वयं वाडे के कोने तक हेमाडपंत के प्रेम से खींचे चले आये, यही साईनाथ की भक्तवात्सल्य हेतु घटित होनेवाली लीला है।
यही बात हमें हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि मेरे भगवान मेरे लिए स्वयं तकलीफ़ उठाकर मुझसे मिलने के लिए आ पहुँचते हैं।
अध्याय ५१ में हम काका दीक्षितजी की कथा पढतें हैं कि उनकी साईनाथ जी से पहली भेंट , पहली मुलाकात कैसी हुई थी ? काकासाब दीक्षित को १९०९ साल तक ’साई’ नाम भी मालूम नहीं था , पर बाद में जब साईनाथ जी का दर्शन हुआ तो दीक्षित ने इस तरह साईनाथ को अपने मन में बसा लिया कि वे साईबाबा के परम भक्त बनकर सारे लोगों में मशहूर हो गए । काका दीक्षित को उनके मित्र नाना चांदोरकर ने साईबाबा के बारे में बताया था और तभी से काका दीक्षितजी के मन में साईनाथ का दर्शन करने की प्यास जगी थी ।धारा सभा की चुनाव के वक्त वह लोगों से मत मांगने हेतू अहमदनगर में काका मिरीकर के पास जा पहुंचें थे । तब वहां पर माधवराव देशपांडे शिरडी से आ पहुंचे थे , मानो साईनाथ ने खुदही उन्हें वहां भेजा था जैसे नाना चांदोरकर की बेटी की प्रसूती के समय उदी और आरती लेकर रामगीर बुवा को स्टेशन से नाना के घर पहुंचाने तांगेवाला राजपूत बनकर खुद साई ही दौडे थे , ना? वैसे ही दीक्षित काका मिरीकरजी के घर पहुंचने से पहले ही साईनाथ खुद तसबीर रूप से वहां जा पहुंचे थे , उस की तसबीर याने वो खुद होते ही है - यही भाव खुद साई ने बालाबुवा सुतार को समझाया था - बालाबुवा सुतार ने साईनाथ की तसबीर को प्रणाम किया था चार साल पहले और जो बात वह खुद भूल ही चुकें थे , पर साईबाबा ने बताया था इसकी और मेरी चार साल पुरानी इसके साथ पहचान है ।
उसी स्वरूप से काका दीक्षित ने जब साईनाथ की तरफ जाने का पहला कदम उठाया , तब भगवान साईनाथ खुद सौ कदम आहे चलकर उन्हें मिलने अहमदनगर पहुंचे थे , और वो भी एक तसबीर रूप से । बाबा का भक्त मेघा बाबा की जो तसबीर की पूजा घर में करता था , उसकी कांच टूट गई थी और उसे दुरुस्त करवाने शिरडी से वो तसबीर अहमदनगर लाई गई थी - याने खुद मेरे साईं काका को मिलने हेतू सौ कदम चलकर खुद अहमदनगर आ पहुँचे थे ।
इस परमात्मा के , भगवान के मिलन में ब्याकुल हुए भक्त की उसके भगवान के साथ , सदगुरु के साथ पहली मुलाकात का महत्त्व , उस पहले दर्शन में ही खुद को उसके हाथ कैसे सौंप देना हैं , कैसे समर्पित करना है इस के बारे में एक बहुत ही सुंदर लेख पढने में आया ,
http://www.newscast-pratyaksha.com/hindi/shree-sai-satcharitra-adhyay2-part49/
यह लेख में लेखक महोदय ने हेमाडपंत की साईनाथ से पहली मुलाकात का वर्णन किया है और बताया है कि हेमाडपंत की शिरडी में श्री साईनाथ से हुई पहली मुलाकात यह उनके जीवन का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पड़ाव था। इस पहली मुलाकात में ही उन्होंने भक्तिमार्ग का बहुत महत्त्वपूर्ण मकाम प्राप्त कर लिया।
जो पढकर लगा हमें किस तरह से मेरे भगवान से, मेरे सदगुरु से मिलना चाहिए ? मेरा भाव कैसे होना चाहिए ,मेरे मन में कितनी प्यास, कितनी लगन, कितनी तडप होनी चाहिए उसे मिलने की ....
यहां संत मीराबाई का एक पद याद आ गया -
ऐसी लागी लगन मीरा हो गयी मगन ।
वो तो गली गली हरी गुण गाने लगी ॥
महलों में पली, बन के जोगन चली ।
मीरा रानी दीवानी कहाने लगी ॥
कोई रोके नहीं, कोई टोके नहीं,
मीरा गोविन्द गोपाल गाने लगी ।
हेमाडपंत इसी भावोत्कटता से साईनाथ को मिले थे , बस! अब तो बस यही एक! मेरे भगवान! मेरे सखा! यही मेरे सर्वस्व!’ इसी दृढ़भाव के साथ हेमाडपंत बाबा के प्रति अनन्य-शरण हो जाते हैं। इस भगवान के दर्शन कैसे करने चाहिए, यही हमें हेमाडपंत के आचरण से पता चलता है। हेमाडपंत अपनी उस प्रथम मुलाकात में ही साई का दर्शन लेते समय अपनी आँखों के रास्ते भगवान के इस सगुण साकार रूप को अपने दिल में उतार लेते हैं, दृढ़ कर लेते हैं, वह भी हमेशा के लिए!
सचमुच साई के इस दर्शन से हेमाडपंत की स्थिति उन्मनी हो चुकी है। अब बाबा सामने हों या ना हों परन्तु हेमाडपंत को अब अपनी आँखों के सामने सदैव ये साई ही नज़र आने लगते हैं। ‘जहाँ देखे वहाँ पूरणकाम।’ संत एकनाथजी के अभंग की इस पंक्ति के अनुसार अब हेमाडपंत के लिए संपूर्ण सृष्टि ही साईमय हो चुकी है। सभी रूपों में ये साईनाथ ही विराजमान है। यही अभंग दोहे के रूप में औरंगाबादकर के मुंह से साईनाथ ने सुनाया था हेमाडपंतजी को -
गुरुकृपांजन पायो मेरे भाई । रामबिना कछु मानत नहीं ।।
अंदर रामा बाहर रामा । जहां देखे वहां पूरनकामा ।।
जागत रामा सोवत रामा । सपने में देखत सीताराम ।।
एका जनार्दनी अनुभव नीका । जहां देखे वहां राम सरीखा ।।
मन में खयाल आया कि क्या मैंने कभी मेरे साई का ऐसा दर्शन किया है ? अगर नहीं, तो कम से कम अभी यह लेख पढने के बाद तो मुझे हेमाडपंतजी से यह बात जरूर सिखनी चाहिए कि मुझे मेरे साईबाबा से , मेरे सईनाथ का दर्शन कैसे लेना चाहिए ? एक पल के लिए भी जिनकी झलक पा लेने के लिए योगीजन, ऋषिगण हजारों वर्ष, जन्म-जन्मातरों तक तपश्चर्या करते रहते हैं, ज्ञानी ज्ञानमार्ग का मुश्किल प्रवास करते हैं, वे भगवान स्वयं अपने ही अकारण कारुण्य के कारण मुझे दर्शन दे रहे हैं, यह जानकर हेमाडपंत के मन में बाबा के इस प्रेम के प्रति, परिश्रम के प्रति कृतज्ञता का भाव उमड़ पड़ता है।
मेरे साई की तो अनिरूध्द गती है , इसिलिए उसे पकड पाना बहुत कठिन है, यही बात स्वंय साईनाथ ने काका दीक्षित से भी कही थी - कि पंढरी का विठ्ठल पाटील बहुत भगोडा है उसे मेख मार के (अपने मन में, अपने दिल में ) अढल करना चाहिए ।
लेखक महाशय हमें हेमाडपंत जी का भाव आसान तरीके से समझातें हैं कि हेमाडपंत उअनके साईनाथ से हुई उअनकी पहली मुलाकात से हमें यही बताना चाहते हैं कि साईनाथ का दर्शन करते समय हम जितना भी बाबा का रूप को अपने मन में , दिल में उतार सकते हैं, उसे दृढ़ कर सकते हैं, उतना ही उसे दृढ़ करने का प्रयास करना चाहिए। साई का दर्शन करते समय कम से कम उतने समय तक के लिए तो सब कुछ भूल जाना चाहिए, यहाँ तक कि स्वयं को भी भूल जाना चाहिए, केवल सामने इस साईनाथ को ही जी भरकर निहारते रहना चाहिए। नज़र से मन में उतारने की अधिक से अधिक कोशिश करनी चाहिए। आखिरकार यही तो ध्यान का पहला चरण होता है ।
हेमाडपंत भी यही बात अपने दिल में उतारने को कह रहें हैं कि साई के पास जब तुम आते हो, तब तुम्हारे जीवन में उस व़क्त चाहे अनेक प्रॉब्लेम्स् क्यों न हों, तुम यदि कुछ माँगना भी चाहते हो, तुम्हें कुछ मन्नत माँगनी हो; जो कुछ भी है, वह सब कुछ बाद में, सबसे पहले कहना चाहिए- हे साईनाथ! मुझे तुम्हें ही तुमसे माँगना है। हमें कुछ न कुछ माँगना तो अवश्य पड़ता है, लेकिन बाबा के समक्ष खड़े रहने पर, उनका दर्शन करते समय पहले जी भर कर उन्हें निहारना है, उन्हें अपनी आँखों में उतारना है और कम से कम उतनी देर के लिए सब कुछ भूलकर हमें बाबा को ही बाबा से माँगने आना चाहिए। हे साईनाथ, मुझे तुम्हें ही तुमसे माँगना है!
बाबा से बाबा को ही माँगना चाहिए। किसी और से नहीं माँगना है, क्योंकि बाबा के पास कोई भी दलाल नहीं हैं, एजंट नहीं हैं। साथ ही केवल बाबा ही स्वयं ही स्वयं को पूर्णत: भक्त को दे देनेवाले हैं, अन्य कोई भी मुझे साई नहीं दे सकता। इसीलिए अन्य किसी से कहकर, अन्य कोई एजंट ढूँढ़कर भगवान को प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
हे साईनाथ , तेरी अगाध अनिरूद्ध गति की थाह पाना तो नामुमकीन है किंतु तेरी कृपा से तेरा रूप ही हमारे दिलों में उतार दें और तेरे ही चरणों में हमें पनाह दे दे -
सब सौंप दिया है जीवन का भार तुम्हारे हाथों में ....