Tuesday, 16 January 2018

चौबीस घंटे मेरे लिए तत्पर रहनेवाला मेरा सच्चा साथी केवल एकमात्र ‘ मेरे साईनाथ - मेरे परमात्मा’ !

हमारी जिंदगी में हम देखतें हैं कि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य की मदद करता है। उसे आधार देता है। अगर वह उसका मित्र है, साथी है तो उसकी बातें सुनेगा, उसे सलाह भी देगा, गलती होने पर अपनी राय बतायेगा, लेकिन कोई भी मनुष्य किसी दोसरे मनुष्य की बातें एक हद तक ही सुनेगा, जब तक वह उसके साथ रहता है , लेकिन उसके बाद? क्या इस बात पर हमें गौर फर्माना चाहिए । आखिर उस दूसरे मनुष्य की खुद की कुछ मर्यादा तो होती ही है और वहीं तक वह दूसरे मनुष्य की सहायता कर सकता है। केवल अकेले ये परमात्मा ही ऐसे हैं जो मेरे लिए सब कुछ, किसी भी समय करने के लिए तैयार एवं तत्पर रहते हैं, परन्तु हमें वे दिखाई नहीं देते अथवा दिखायी देने पर भी हम उन्हें अनदेखा करते रहते हैं।

श्रीसाईसच्चरित में हेमाडपंत जी हमें एक ऐसे सच्चे साथी से हमें मिलवातें हैं जो हमारा साथ कभी नहीं छोडता, एक पल भी नहीं , दिन के पूरे चौबीस घंटे वह मेरा साथ निरंतर करता रहता है, मैं चाहूं तो भी और या ना चाहूं फिरभी । कोन है वो? मन में सचमुच खलबली मच जाती है ना यह जानने के लिए कौन मुझ से इतना बेहद , बेपनाह प्यार करता है, मेरी सहायता करता है , मेरा साथ देता है ? तो वह है मेरे साईनाथ , मेरे मालिक, मेरे परमात्मा ! मेरे द्वारा की जाने वाली हर एक कृति को देखने वाले, मेरे हर एक आँसू को पोंछने वाले और मेरी छोटी से छोटी खुशी में भी आनंदित होनेवाले, इतना ही नहीं बल्कि मेरी हर एक उचित एवं मर्यादाशील कृति की प्रशंसा करनेवाले केवल ‘वे’ ही एक हैं, होते हैं और आगे भी होंगे ही। यानि सिर्फ वर्तमान में ही नहीं, मेरे भूतकाल और भविष्य़काल में भी, मेरे जीवन के हर कदम पर , हर पल में मेरे साईनाथही मेरा सच्चा साथी बनकर, मेरा साथ निभातें हैं ।   
                                                                     
हेमाडपंतजी पहली बार शिरडी में साईनाथ के दरशन करने आए थें , तब साठेजी के वाडे में (मकान में ) उनकी बालासाब भाटे जी के साथ बहस होती है कि मनुष्य के जीवन में गुरु की आवश्यकता है या नहीं ? साईनाथ तो उअस वक्त उनके साथ नहीं थे , साठे जी के वाडे में मौजूद , फिर भी साईनाथ काका दीक्षित से पूंछतें हैं कि -

वाडे में क्या चल रहा था।
किस बात पर बहस चल रही थी।
क्या कहा इन ‘हेमाडपंत’ ने।
मेरी ओर देखते हुए कहा॥    

साठेजी के वाडे से मसजिदमाई काफी दूर थी , जहां पर साईनाथ बैंठे हुए थे, किंतु साईनाथ - जो हर मनुष्य के साथ हर पल मौजूद रहता ही है , उससे भला कोई बात कैसे छुप सकतीं हैं ? इसिलिए हेमाडपंट जी को इस बात की जानकारी देने , उन्हें महसूस करवाने साईबाबा यह बात कहतें हैं । वाद-विवाद या बहस करना बुरी बात हैं , जो हमेशा हमारा नुकसान करता हैं , हमारे मन को गलत राह पर भटकने के लिए मजबूर कर देता है। 

यह वाद -विवाद क्या होता है, क्यों होता हैं , इससे हम कैसे दूर रह सकतें हैं और सच्चा संवाद क्या होता हैं, वह किसके साथ होता है या हमें करना चाहिए इस के बारे में हाल ही में एक बहुत ही सुंदर लेख पढ्ने मिला -




इस लेख में लेखक महोदय ने बताया है कि हेमाडपंतजी हमें कौन से वाद -विवाद के बारे में बताना चाहतें हैं - सामान्य मनुष्य के जीवन में वाद-विवाद अकसर नियमित रूप में चलते ही रहते हैं। मानव के मन में यह द्वन्द्व बहुत बार चलता रहता है कि ‘क्या इस दुनिया में भगवान हैं? यदि हैं तो भी वे मुझे दिखायी नहीं देते? यदि दिखायी भी दें तो क्या ज़रूरी है कि वे भगवान ही होंगे? और यदि वे भगवान हैं तो फिर वे मेरे लिए कुछ करते क्यों नहीं हैं? दूसरों का जीवन कितना सरल और सुंदर है और मेरे जीवन में कितनी सारी समस्यायें आन पड़ी हैं?’ इस प्रकार की अनगिनत बातों को लेकर मनुष्य अपने आप से और दूसरों से बहस करता है या कराते रहता है।

लेखक हमें गौर फर्माने के लिए भी सूचित करतें हैं कि  जहाँ पर भगवान या ईश्वर , परमात्मा पर विश्‍वास ही न हो वहाँ पर तो वाद-विवाद चलता ही रहेगा। ‘इस दुनिया में ईश्‍वर हैं, वे नहीं है ऐसी स्थिति हो ही नहीं सकती’ यह विश्‍वास सर्वप्रथम जिस पल दृढ़ होता है, उसी क्षण से आगे होने वाले वाद-विवादों की समस्याओं का समाधान होना आरंभ हो जाता है। जिस क्षण ‘वे’ हैं ही यह विश्‍वास दृढ़ होगा, उसके पश्‍चात् तुरंत ही ‘वे राम, वे कृष्ण, वे ही साई बनकर आते हैं और वे केवल हमारे लिए ही आते हैं’, और हमें इस बात का पता भी चल जाता हैं ।

लेखक जी हमें समझातें हैं कि जिस क्षण से वाद-विवाद का अंत होता है वही से संवाद शुरू हो जाता है।  वो बतातें हैं कि मनुष्य-मनुष्य के बीच चलने वाला वाद-विवाद तो शायद खत्म भी हो जाता है। परन्तु मन ही मन चलने वाला यह वाद-विवाद का झमेला अर्थात स्वयं का ही स्वयं के साथ चलने वाला यह विवाद लम्बे समय तक चलते ही रहता है और ऊपर कहेनुसार इस विवाद का मुख्य कारण होता है, दृढ़ विश्‍वास का अभाव और जिस क्षण यह अभाव भाव में परिवर्तित हो जाता है, उसी क्षण से इस विवाद पर रोक लग जाता है। इस दुनिया में ईश्‍वर है अथवा नहीं, इससे आरंभ होनेवाला वाद-विवाद, यदि ईश्‍वर पर दृढ़ विश्‍वास निर्माण हो जाता है तो ‘वे’ होते ही हैं और ‘वे’ मेरे लिए ही और मेरे ही होते हैं, इस संवाद में परिवर्तित हो जाता है।  
  
यह बात हम दामू अण्णा कासार के कथा में अच्छी तरह से महसूस कर पातें हैं । दामू अण्णा का एक मित्र उअसके साथ रूई (कपास) का ब्यापार करने के लिए पूंचता हैं ? दामू अण्णा के मन में वो व्यापार करें या नाकरें , इस बात पर वाद-विवाद चलता रहता है काफी समय तक , किंतु वह तय नहीं कर पातें हैं , इसिलिए जिस साईनाथ को वो अपना  मानतें हैं , उनसे सलाह मांगतें हैं खत लिखकर , शिरडी भेजकर । साईनाथ जो मेरा सच्चा साथी है , वो दामू अण्णा को रुई का ब्यापार न करने की सलाह देतें हैं , किंतु पैसे के मोह से दामू अण्णा उसे नहीं मानना चाहतें । वो खुद साईनाथ से मिलने चले आतें हैं , साईबाबा से पूंछने की हिम्मत जुटा नहीं पातें , किंतु बिना बात किए हुए भी साईनाथ उनके मन की बात भांपकर उन्हें गलत रास्ते पर जाने से रोंक देंतें हैं और इसीसे दामू अण्णा कासार धंदे में होनेवाले हानी से बाल बाल बच जातें हैं । 

दामू अण्णा का साईनाथ से लगातार संवाद ही चल रहा था, पहले तो साईनाथ की बात मानने से दामू अण्णा कतरातें हैं , उनके मन में वाद-व-वाद शुरु हो जाता हैं , किंत्य बाद में साईनाथ के कृपा से ही वह बच जातें हैं, उनका कोई भी नुकसान नहीं होता - यह मुमकीन हुआ सिर्फ और सिर्फ इसिलिए के दामू अण्णा ने साईबाबा से संवाद शुरु किया था ।

दूसरी ओर भागोजी शिंदे जिनको सारे गांव ने धुतकारा था, दूर रखा था, जिससे सारे गाव ने नाता तोड दिया था, संवाद छोड दिया था, उनसे भी सिर्फ और सिर्फ साईनाथ ने , भागोजी ने उन्हें अपना मानने पर, अपना भगवान , अपना परमात्मा मानने पर, ऊस भागोजी के अपने साईनाथ ने ही संवाद शुरु रखा था, अपने चरणों में पनाह दी थी ।

भक्त प्रल्हाद के खुद के अपने पिता ने भी उनसे शत्रुता निभायी थी, फिर भी उसने महविष्णु को ही अपना माना, उनसे ही अपना संवाद शुरू किया, तब प्रल्हाद को उनके अपने भगवान महाविष्णु ने ही उनसे
खुद का संवाद  बना दिया था ।

इसिलिए मुझे भी और साथ ही साथ हर मनुष्य़ को भी इसी परम सत्य का स्विकार करना चाहिए कि  चौबीस घंटे मेरे लिए तत्पर रहनेवाला मेरा  सच्चा साथी केवल एकमात्र ‘ मेरे साईनाथ -मेरे परमात्मा’ है और मुझे मेरे साईनाथ से हमेशा संवाद बनाए रखना है ।

प्रत्यक्ष मित्र - Pratyaksha Mitra

Samirsinh Dattopadhye 's Official Blog