ॐ कृपासिंधु श्रीसाईनाथाय़ नम: ।
हेमाडपंतजी श्रीसाईनाथ की कथाओंका , उनकी लीलाओं का बखान करते बिलकुल नहीं थकतें हैं। वो बार बार हम श्रोताओं को समझाते हैं कि मेरे साईबाबा की सिर्फ कथाएं भी सुन लो तो आप के कर्म पाश भी टूट जातें हैं सिर्फ मेरे साईबाबा की अगाध कृपादृष्टी से और साथ में आप की बुध्दी को मेरे साईबाबा की करूणा मयी दृष्टी से बुध्दी भी सुप्रकाशित हो उठती है ,और तो और श्रवण करनेवाला सभी सुख निर्विशेष रूप से पाता है।
श्रवणार्थियों का कर्मपाश। तोड़ देती हैं ये कथाएँ विशेष।
बुद्धि को देती सुप्रकाश। निर्विशेष सुख सकल॥
जब मैं यह पढती थी तो इस साईबाबा के कथा श्रवण का इतना गहरा महत्त्व समझ में नहीं आया था अब तक । पर जब मैंने इस ओवी के अर्थ के बारे में एक
मेडीया पर एक लेख पढा तो सोच में डूब गयी ।
http://www.newscast-pratyaksha.com/hindi/shree-sai-satcharitra-adhyay2-part16/
इस लेख में लेखक महोदयजी बता रहें हैं कि
श्रीसाईसच्चरित की कथाएँ भाविक श्रोताओं के कर्मपाश तोड़ देती हैं, प्रारब्ध का नाश कर देती हैं। इन कर्मपाशों को यानी कर्मबंधों को ये कथाएँ ‘अशेष’ रूप से तोड देती हैं अर्थात् एक भी पाश को बाकी नहीं बचने देती हैं।
यह पढतें ही याद आयी ३४ वे अध्याय में पढी हुई नाशिक जिले के मालेगांव नामक एक ग्राम में रहनेवाले एक डॉक्टर की कथा । उसके नन्हे से भतीजे को हाड्याव्रण नामक बहुत ही दुर्धर ( जल्दी न ठीक होनेवाली ) बीमारी ने जकड लिया था । वो स्वंय एक डॉक्टर था और उसका दोस्त भी डॉक्टर था , किंतु वो उस बीमारी की दवा दे नहीं पाया । देश विदेश के सारे उपचार करवाएं , सारे देव देवताओं के , कुलस्वामी के हाथ पैर जोडने पर भी कुछ रास्ता नहीं मिला और फिर किसी ने शिरडी के साईबाबा के बारे में बताया और उस अवलिया के पास उस भतीजे को लेकर उसके मां -बाप गए और फिर उस नन्हे लडके की बीमारी को साईबाबा ने सिर्फ पैर के उपर से अपना हाथ फेरकर बिना किसी दवा के अपने बचनों से ठीक किया था । बाद में उस हाड्याव्रण की जख्म पर बाबा ने दी हुई उदी से ही सब कुछ ठीक हुआ था । अब साईबाबा की इस लीला को उस डॉक्टर ने सुना था मालेगाव में और साईबाबा को मिलने जाने का तय भी किया था । किंतु बाद में उस डॉक्टर के मन में किसी ने साईबाबा के बारे में कुछ (गलत बात ) बताकर विकल्प डाल दिया था । तो वो डॉक्टर ने साईबाबा के दर्शन को जाने का अपना बिचार छोड दिया और आगे मुंबई चला गया । पर देखिए साईबाबा की कथा सुनी है तो साईबाबा ने खुद ही उस डॉक्टर के प्रारब्ध वश उसे साईबाबा को मिलने में जो बाधा पैदा हो गयी या रूकावट आ गयी उसको दूर किया याने उस डॉक्टर के कर्म पाश तोडकर उसे सपने में अशरीर वाणी से अपने पास बुलावा भेजा ।
हेमाडपंतजी और भी एक बात पर गौर फर्मातें हैं कि मेरे साईबाबा की ये कथाएँ बुद्धि को सुप्रकाश देती हैं अर्थात् इनके माध्यम से वह वरेण्य भर्ग ( पापदाहक तेज )बुद्धि को प्राप्त होता है। और यह पापदाहक तेज बुद्धि के द्वारा मन में प्रवेश करके पापों के बीजों को जला डालता है। वैसे तो परमेश्वरी ‘भर्ग’ इस ऐश्वर्य को प्राप्त करना इतना आसान नहीं है; परन्तु श्रद्धावानों के लिए साई की कथाओं का सहज सरल मार्ग ही यह भर्ग प्राप्त करवाने वाला होता है। पापबीज और पापों के परिणाम इस प्रकार के पाप-समुच्चय का नाश इस परमेश्वरी भर्ग से ही होता है। मालेगाव का वो डॉक्टर साईबाबा की कथा सुनकर भी जान नहीं पा रहा था, साईबाबा की महानता को नहीं स्मझ पा रहा था , साईबाबा के इशारे का अर्थ नहीं समझ पा रहा था तब साईबाबा ने उसकी बुध्दी को सुप्रकाशित
करने के लिए लगातार तीन रात को वोही बाणी उसे सुनाई दी गयी "अभी तक मुझपर अविश्वास है क्या आपका ? " बाद में उसी डॉक्टर के एक बीमार मरीज को ठीक करवाने का उसका बिचार सत्य में परिवर्तित करके उस डॉक्टर को साईबाबा ने अपने पास खिंचकर बुला लिया । याने साईबाबा ने सिर्फ उनकी कथा सुनने पर डॉक्टर के सारे कर्म पाश तोड दिए थे , एक पाश भी बाकी बचने नहीं दिया था ।
हेमाडपंत हमें पूरे विश्वास के साथ बता रहे हैं कि मेरे साईनाथ की कथाओं का भावपूर्वक श्रवण करने से यह भर्ग - पाप का नाश करनेवाला परमेश्वरी तेज से साईनाथ हमारी झोली आसानी से भर देतें हैं । हेमाडपंतजी बदे प्यार से हमें यह भरोसा देतें हैं कि हर एक को निर्विशेष सुख, शाश्वत सुख अर्थात आनंद की प्राप्ति करवाने वालीं ऐसी ये कथाएँ हैं। इन कथाओं का यह सहज, सुंदर, आसान मार्ग ही हम जैसे सभी सामान्य मानवों के लिए उचित है। हेमाडपंत ने इन कथाओं की महिमा का अनुभव लेकर उन्हें समझकर ही साईसच्चरित की रचना हम सब श्रध्दावानों के लिए करने का निश्चय किया था ।
हेमाडपंत आगे बतातें हैं कि मेरे साईबाबा के नाम के चार अक्षर भी क्या कुछः नहीं कर सकतें ?
‘कान में पड़ते ही चार अक्षर। तत्काल ही जीवों का दुर्दिन जाये हर।
संपूर्ण कथा सुनते ही सादर। भावार्थी तर जाये भव पार।’
‘साईनाथ’ ये चार अक्षर और कथा के चार अक्षर कानों में पड़ते ही तत्काल जीवों का दुर्दिन टल जाता है। अर्थात इस कथा के चार अक्षर कानों में पड़ते ही प्रारब्धभोग अर्थात कठिन काल दूर हो जाता है, प्रारब्ध का अंधकार दूर हो जाता है।
भीमाजी पाटील ने अपने दोस्त नाना चांदोरकरजी का कहा माना और साईनाथ इस चार अक्षर को अपनी दवा मानकर चले आए शिरडी तो साईबाबा ने भी तत्काल उस बीमार , दुखियारे , जीव का दुर्दिन हर दिया था ।
उपर बताए गए लेख में लेखक महोदय इस बात को सुस्पष्ट करके दिखलातें हैं कि
दुर्दिन इस शब्द का अर्थ है- दिन के होते हुए भी अंधकारमय स्थिति का हमारे जीवन में होना । इस साईरूपी सूर्य के सामने होते हुए भी हम ही अपने प्रारब्ध के कारण, अपने अहंकार के कारण अपने जीवन में अंधकार उत्पन्न करते हैं। हम मन के सारे दरवाज़े बंद करके, प्रकाश को अपने से दूर कर देते हैं। इस कथा के चार अक्षर कानों में पड़ते ही सारे के सारे दरवाजे अपने आप खुल जाते हैं और प्रकाश के कारण सब कुछ प्रकाशित हो उठता है। फ़िर पूरी कथा सुनने पर अन्य अवरोध भी दूर हो कर साईनाथ के गोकुल में, तेज:लोक में प्रवेश अवश्य ही मिलता है अर्थात भावार्थी भव से पार हो जाता है। सर्वसामान्य जीवात्मा, जो अपना उद्धार चाहते हैं, उनके लिए साईनाथ ने ही भवसागर के पार ले जाने वाले इस मार्ग को हेमाडपंत के माध्यम से प्रकाशित किया है।
मालेगाव के डॉक्टर ने भी इस बात का अनुभव किया और वो विजापूर में प्रमोशन लेकर चले गए ।
१३ वे अध्याय में पढी हुई भीमाजी पाटील की कथा यही बात को साबित करती है -
जुन्नर के नारायण गाव में रहनेवाले भीमाजी पाटील - जिन्हें क्षय ( टी. बी. ) की बीमारी ने पूरी तरह जकड लिया था । सभी प्रकार के बैद्यजी से दवा हो गयी थी, देवी देवताओं की मन्नत मांग चुके थे , पर कोई भी राह नहीं मिल रही थी और वे अपनी जिंदगी से ऊब गए थे । ऐसे में उन्हें अपने दोस्त नानासाब चांदोरकरजी की याद आती हैं । बस्स वो ही पल उनके लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण बन जाता है । अर्थात साईबाबा के परम भक्त रहनेवाले नानासाब चांदोरकर उन्हें तुरंत ही शिरडी आकर उनके सदगुरु साईबाबा के दर्शन लेने की सलाह देतें हैं । जैसे ही भीमाजी शिरडी में साईबाबा के दर्शन लेतें हैं और साईबाबा की वाणी उनके अपने ही मुख से सुनतें हैं वैसे ही भीमाजी की व्यथा का हटना शुरु हो जाता है । हर पांच मिनट में मुंह में आनेवाला खून का नामोनिशान मिट जाता है । इतना ही नही वो अपने पैरों पर खुद चलकर जा सकें ।
भीमाजी की कथा हमें दिखलाती हैं कि उनके जीवन में मौत का खोंफ छा गया था , कोई भी इलाज न होने के कारण उनका जीवन अंधकार से घिर गया था और साईबाबा ने उन्हें उनका जीवन लौटाकर जीने की नई उम्मीद से उनका जीवन सुप्रकाशित किया था ।
हम भी श्रीसाईसचरित की साईबाबा की कथाएं पढकर हमारा जीवन सुख , शांती , तृप्ती और समाधान से भर सकतें हैं जरूर १०८ % सही मायनो में !
हेमाडपंतजी श्रीसाईनाथ की कथाओंका , उनकी लीलाओं का बखान करते बिलकुल नहीं थकतें हैं। वो बार बार हम श्रोताओं को समझाते हैं कि मेरे साईबाबा की सिर्फ कथाएं भी सुन लो तो आप के कर्म पाश भी टूट जातें हैं सिर्फ मेरे साईबाबा की अगाध कृपादृष्टी से और साथ में आप की बुध्दी को मेरे साईबाबा की करूणा मयी दृष्टी से बुध्दी भी सुप्रकाशित हो उठती है ,और तो और श्रवण करनेवाला सभी सुख निर्विशेष रूप से पाता है।
श्रवणार्थियों का कर्मपाश। तोड़ देती हैं ये कथाएँ विशेष।
बुद्धि को देती सुप्रकाश। निर्विशेष सुख सकल॥
जब मैं यह पढती थी तो इस साईबाबा के कथा श्रवण का इतना गहरा महत्त्व समझ में नहीं आया था अब तक । पर जब मैंने इस ओवी के अर्थ के बारे में एक
मेडीया पर एक लेख पढा तो सोच में डूब गयी ।
http://www.newscast-pratyaksha.com/hindi/shree-sai-satcharitra-adhyay2-part16/
इस लेख में लेखक महोदयजी बता रहें हैं कि
श्रीसाईसच्चरित की कथाएँ भाविक श्रोताओं के कर्मपाश तोड़ देती हैं, प्रारब्ध का नाश कर देती हैं। इन कर्मपाशों को यानी कर्मबंधों को ये कथाएँ ‘अशेष’ रूप से तोड देती हैं अर्थात् एक भी पाश को बाकी नहीं बचने देती हैं।
यह पढतें ही याद आयी ३४ वे अध्याय में पढी हुई नाशिक जिले के मालेगांव नामक एक ग्राम में रहनेवाले एक डॉक्टर की कथा । उसके नन्हे से भतीजे को हाड्याव्रण नामक बहुत ही दुर्धर ( जल्दी न ठीक होनेवाली ) बीमारी ने जकड लिया था । वो स्वंय एक डॉक्टर था और उसका दोस्त भी डॉक्टर था , किंतु वो उस बीमारी की दवा दे नहीं पाया । देश विदेश के सारे उपचार करवाएं , सारे देव देवताओं के , कुलस्वामी के हाथ पैर जोडने पर भी कुछ रास्ता नहीं मिला और फिर किसी ने शिरडी के साईबाबा के बारे में बताया और उस अवलिया के पास उस भतीजे को लेकर उसके मां -बाप गए और फिर उस नन्हे लडके की बीमारी को साईबाबा ने सिर्फ पैर के उपर से अपना हाथ फेरकर बिना किसी दवा के अपने बचनों से ठीक किया था । बाद में उस हाड्याव्रण की जख्म पर बाबा ने दी हुई उदी से ही सब कुछ ठीक हुआ था । अब साईबाबा की इस लीला को उस डॉक्टर ने सुना था मालेगाव में और साईबाबा को मिलने जाने का तय भी किया था । किंतु बाद में उस डॉक्टर के मन में किसी ने साईबाबा के बारे में कुछ (गलत बात ) बताकर विकल्प डाल दिया था । तो वो डॉक्टर ने साईबाबा के दर्शन को जाने का अपना बिचार छोड दिया और आगे मुंबई चला गया । पर देखिए साईबाबा की कथा सुनी है तो साईबाबा ने खुद ही उस डॉक्टर के प्रारब्ध वश उसे साईबाबा को मिलने में जो बाधा पैदा हो गयी या रूकावट आ गयी उसको दूर किया याने उस डॉक्टर के कर्म पाश तोडकर उसे सपने में अशरीर वाणी से अपने पास बुलावा भेजा ।
हेमाडपंतजी और भी एक बात पर गौर फर्मातें हैं कि मेरे साईबाबा की ये कथाएँ बुद्धि को सुप्रकाश देती हैं अर्थात् इनके माध्यम से वह वरेण्य भर्ग ( पापदाहक तेज )बुद्धि को प्राप्त होता है। और यह पापदाहक तेज बुद्धि के द्वारा मन में प्रवेश करके पापों के बीजों को जला डालता है। वैसे तो परमेश्वरी ‘भर्ग’ इस ऐश्वर्य को प्राप्त करना इतना आसान नहीं है; परन्तु श्रद्धावानों के लिए साई की कथाओं का सहज सरल मार्ग ही यह भर्ग प्राप्त करवाने वाला होता है। पापबीज और पापों के परिणाम इस प्रकार के पाप-समुच्चय का नाश इस परमेश्वरी भर्ग से ही होता है। मालेगाव का वो डॉक्टर साईबाबा की कथा सुनकर भी जान नहीं पा रहा था, साईबाबा की महानता को नहीं स्मझ पा रहा था , साईबाबा के इशारे का अर्थ नहीं समझ पा रहा था तब साईबाबा ने उसकी बुध्दी को सुप्रकाशित
करने के लिए लगातार तीन रात को वोही बाणी उसे सुनाई दी गयी "अभी तक मुझपर अविश्वास है क्या आपका ? " बाद में उसी डॉक्टर के एक बीमार मरीज को ठीक करवाने का उसका बिचार सत्य में परिवर्तित करके उस डॉक्टर को साईबाबा ने अपने पास खिंचकर बुला लिया । याने साईबाबा ने सिर्फ उनकी कथा सुनने पर डॉक्टर के सारे कर्म पाश तोड दिए थे , एक पाश भी बाकी बचने नहीं दिया था ।
हेमाडपंत हमें पूरे विश्वास के साथ बता रहे हैं कि मेरे साईनाथ की कथाओं का भावपूर्वक श्रवण करने से यह भर्ग - पाप का नाश करनेवाला परमेश्वरी तेज से साईनाथ हमारी झोली आसानी से भर देतें हैं । हेमाडपंतजी बदे प्यार से हमें यह भरोसा देतें हैं कि हर एक को निर्विशेष सुख, शाश्वत सुख अर्थात आनंद की प्राप्ति करवाने वालीं ऐसी ये कथाएँ हैं। इन कथाओं का यह सहज, सुंदर, आसान मार्ग ही हम जैसे सभी सामान्य मानवों के लिए उचित है। हेमाडपंत ने इन कथाओं की महिमा का अनुभव लेकर उन्हें समझकर ही साईसच्चरित की रचना हम सब श्रध्दावानों के लिए करने का निश्चय किया था ।
हेमाडपंत आगे बतातें हैं कि मेरे साईबाबा के नाम के चार अक्षर भी क्या कुछः नहीं कर सकतें ?
‘कान में पड़ते ही चार अक्षर। तत्काल ही जीवों का दुर्दिन जाये हर।
संपूर्ण कथा सुनते ही सादर। भावार्थी तर जाये भव पार।’
‘साईनाथ’ ये चार अक्षर और कथा के चार अक्षर कानों में पड़ते ही तत्काल जीवों का दुर्दिन टल जाता है। अर्थात इस कथा के चार अक्षर कानों में पड़ते ही प्रारब्धभोग अर्थात कठिन काल दूर हो जाता है, प्रारब्ध का अंधकार दूर हो जाता है।
भीमाजी पाटील ने अपने दोस्त नाना चांदोरकरजी का कहा माना और साईनाथ इस चार अक्षर को अपनी दवा मानकर चले आए शिरडी तो साईबाबा ने भी तत्काल उस बीमार , दुखियारे , जीव का दुर्दिन हर दिया था ।
उपर बताए गए लेख में लेखक महोदय इस बात को सुस्पष्ट करके दिखलातें हैं कि
दुर्दिन इस शब्द का अर्थ है- दिन के होते हुए भी अंधकारमय स्थिति का हमारे जीवन में होना । इस साईरूपी सूर्य के सामने होते हुए भी हम ही अपने प्रारब्ध के कारण, अपने अहंकार के कारण अपने जीवन में अंधकार उत्पन्न करते हैं। हम मन के सारे दरवाज़े बंद करके, प्रकाश को अपने से दूर कर देते हैं। इस कथा के चार अक्षर कानों में पड़ते ही सारे के सारे दरवाजे अपने आप खुल जाते हैं और प्रकाश के कारण सब कुछ प्रकाशित हो उठता है। फ़िर पूरी कथा सुनने पर अन्य अवरोध भी दूर हो कर साईनाथ के गोकुल में, तेज:लोक में प्रवेश अवश्य ही मिलता है अर्थात भावार्थी भव से पार हो जाता है। सर्वसामान्य जीवात्मा, जो अपना उद्धार चाहते हैं, उनके लिए साईनाथ ने ही भवसागर के पार ले जाने वाले इस मार्ग को हेमाडपंत के माध्यम से प्रकाशित किया है।
मालेगाव के डॉक्टर ने भी इस बात का अनुभव किया और वो विजापूर में प्रमोशन लेकर चले गए ।
१३ वे अध्याय में पढी हुई भीमाजी पाटील की कथा यही बात को साबित करती है -
जुन्नर के नारायण गाव में रहनेवाले भीमाजी पाटील - जिन्हें क्षय ( टी. बी. ) की बीमारी ने पूरी तरह जकड लिया था । सभी प्रकार के बैद्यजी से दवा हो गयी थी, देवी देवताओं की मन्नत मांग चुके थे , पर कोई भी राह नहीं मिल रही थी और वे अपनी जिंदगी से ऊब गए थे । ऐसे में उन्हें अपने दोस्त नानासाब चांदोरकरजी की याद आती हैं । बस्स वो ही पल उनके लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण बन जाता है । अर्थात साईबाबा के परम भक्त रहनेवाले नानासाब चांदोरकर उन्हें तुरंत ही शिरडी आकर उनके सदगुरु साईबाबा के दर्शन लेने की सलाह देतें हैं । जैसे ही भीमाजी शिरडी में साईबाबा के दर्शन लेतें हैं और साईबाबा की वाणी उनके अपने ही मुख से सुनतें हैं वैसे ही भीमाजी की व्यथा का हटना शुरु हो जाता है । हर पांच मिनट में मुंह में आनेवाला खून का नामोनिशान मिट जाता है । इतना ही नही वो अपने पैरों पर खुद चलकर जा सकें ।
भीमाजी की कथा हमें दिखलाती हैं कि उनके जीवन में मौत का खोंफ छा गया था , कोई भी इलाज न होने के कारण उनका जीवन अंधकार से घिर गया था और साईबाबा ने उन्हें उनका जीवन लौटाकर जीने की नई उम्मीद से उनका जीवन सुप्रकाशित किया था ।
हम भी श्रीसाईसचरित की साईबाबा की कथाएं पढकर हमारा जीवन सुख , शांती , तृप्ती और समाधान से भर सकतें हैं जरूर १०८ % सही मायनो में !