Friday 1 December 2017

हमारे जिंदगी में सदगुरु साईनाथ की आवश्यकता !!!

साईनाथ के बारे में कोई हमें बता देता है या हमारे मन में साईनाथ के प्रति प्रेम भाव होता है तो हम साईनाथ के दर्शन के लिए साई मंदिर में जातें हैं, शिरडी जातें हैं , कोई कोई साईबाबा के लिए गुरुवार का उपवास भी रखतें (करतें) हैं और ऐसे ही साई भक्ति में हम एक एक पगडंडी पें पैर रखकर साईनाथ की ओर खिंचें चलें जातें हैं । साईनाथ की कृपा से हमारे जिंदगी में कुछ अच्छे बदलाव आने लगतें हैं , हमारी मुसीबतें साईनाथ की कृपा से ही चुटकी बजातें ही हल हो जाती हैं और फिर हमें अंहकार होने लगता हैं कि यह सब तो मेरी भक्ति के कारण हो रहा है, यह सब मैं साईबाबा के लिए इतना उपवास रखता हूं, शिरडी जाता हूं , या हर गुरुवार साईनाथ के मंदिर में जाकर फूल-माला-नारियल चढाता हूं आ मनत पूरा करने के लिए मैं साईनाथ को सोने का मुगुट पहनाता हूं इसिलिए यह सब अच्छा हो रहा हैं । 

धीरे धीरे मेरे मन में अंहकार का इतना पनपने लगता है कि वो केवल बीज ना रहकर बडा पेड बन जाता है , जो मेरे खुद के लिए बहुत ही हानीकारक होता है । 

साईनाथ तो अंतरज्ञानी हैं , वो तुरंत ही हमारे मन की बात जान लेतें हैं , वो बहुत ही दयालू है और अपने बच्चों की गलतियां ना हो इसिलिए उन्हें सही मार्ग दिखलाना भी चाहतें हैं , साथ ही में हमें माफी दिलाना भी जानतें हैं - किंतु यह बातें तभी संभव हैं जब हमें हमारी गलतियों का एहसास हो । सच बात तो यही हैं कि हमारे भगवान साईनाथ की अकारण करूणा (बिना वजह की गय़ी कृपा) , उनका बिनाहिसाब किया जानेवाला ढेर सारा अनगिनत प्यार यही एक कारण है कि हमारी जिंदगी में उनकी कृपा प्राप्त हो जाती हैं । पर हम हमारे अंहकार की धुनी रमाने में इतना मशगूल हो जातें हैं कि जाने-अनजाने में हम यही बात कों अनसुना अनदेखा करतें हैं ।

हेमाडपंत यही हमारी गलती अपने खुद  के अनुभव से हमें दिखाकर सावधान कर देना चाहतें हैं कि मैंने मेरे साईनाथ के प्रथम दर्शन में ही बहुत कुछ पाया जो मैंने सपने में भी नहीं सोचा था, या जिसकी मैंने कलपना भी नहीं की थी । किंतु उसी वक्त मेरा अंहकार मुझे गलत रास्ते पर भटकाने लगा कि साईनाथ की कृपा या उनके दर्शन यह तो मेरे ही पूर्व जन्मों के पुण्यकर्मों के कारण साईमहाराज मुझें मिलें हैं -
पूर्व जन्मों के न जाने कितने पुण्यकर्मों के कारण।
ये जो साईमहाराज हैं, वे मुझे मिले ॥

यानि हेमाडपंत यह कबूल करतें हैं कि मेरे अंहकार के कारण कहीं तो मैं भटक गया और मुझे साईनाथ की कृपा ना दिखतें हुए , मेरा खुद  का बड्डपन दिखने लगा । और जब अंहकार मानव के मन में प्रवेश करने लगता है तो वहां भगवान साईनाथ एक पल भी नहीं रुकतें ।
संत कबीरजी भी यही बात आदमी को समझातें हैं कि -
प्रेम गली अति सांकरी । ता में दो ना समाय ।
तू है तो मैं नाही । मैं हूं तो तू नहीं ।

अर्थ - मेरे मन की जगह में प्रेम की  इतनी छोटी गली है कि वहां एक वक्त सिर्फ एक ही रहता है  , एक तो मैं खुद (मेरा अंहकार) या फिर मेरा भगवान , मेरे सदगुरु , जब मैं रहता हूं , तो मेरा भगवन , मेरे सदगुरु वहां रह नहीं सकतें और अगर मेरे सदगुरु, मेरे भगवन (मेरे साईनाथ ) को मैं जगह दे दूं तो मुझे खुद के अंहकार को निकालना पडता है । 
हेमाडपंत खुद के स्वानुभवा से हमें यह बात अच्छी तरह से ध्यान में आतीं  हैं कि - 
सुबह साईनाथ का दर्शन पाया, चरणधूली का सौभाग्य प्राप्त होने के बावजूद रात में हेमाडपंत गुरु की आवश्यकता क्या इस अपने अंहकार में भूल जातें है कि साईनाथ ने उन्हें क्या कुछ नहीं दिया सिर्फ एक बार के दर्शन में । हेमाडपंत बालासाब भाटे से वाद करतें हैं कि आदमी अपने कर्म करके उसका फल पाता है , गुरु होने ना होने से उसकी जिंदगी में कुछ बदलाव नहीं आ सकता । साईनाथ तो यह बात तुरंत ही जान जातें हैं । इसिलिए अपने बच्चे को गलत अंहकार के मार्ग में भटक जाने से रोकने कि लिए , उनका नाम गोविंदपंत बदलकर हेमाडपंत भी रख देतें हैं और उन्हें इस बात का एह्सास भी दिला देतें हैं कि तू जो अंहकार से बहस कर रहा है , तू जो गुरु की आवश्यकता नहीं समझ रहा है  वह कितनी बडी गलती है ।

यह इतनी महत्त्वपूर्ण बात हर वक्त श्रीसाईसच्चरित पढतें हुए मेरे समझ में नहीं आ रही थी किंतु एक लेख पढकर वह ध्यान में आ गयी - वह लेख आप भी पढेंगे
तो शायद साईनाथ की कृपा , उनकी आवश्यकता , गुरु का महत्त्व ध्यान में आने के लिए बहुत आसानी होगी -
http://www.newscast-pratyaksha.com/hindi/shree-sai-satcharitra-adhyay2-part50/




लेखक महोदय ने बडी आसानी से समझाया है कि हमारे साईनाथ हमारी जिंदगी आनंद , समाधान से भर जाएं, हमें कभी भी कोई भी मुसीबत का सामना ना करने पडे, इसिलिए हमारे  लिए कितने प्रयास करतें हैं । वो अच्छी तरह जानतें हैं कि सारे मुसीबतों की जड, सारे दु:खों की वजह अभक्ती, अश्रध्दा होती है और आदमी के जीवन में अंहकार भरा हो तो वो कभी भी भगवान की कृपा को स्विकार नहीं कर सकता, वो अपने आप खुद ही सारे दरवाजे और खिडकियां बंद कर देता हैं , अपने अंहभाव से वह दूसरे इंसानों से हमेशा झगडें कर बैठता हैं , अपने आप को सही बतलाने के लिए वह दूसरों से वाद करता हैं , वो खुद के बडपन के सामने भगवान की कृपा को भी अनदेखा कर सकता है । यह सारी गलतियां सिर्फ अंहकार से उत्पन्न होती हैं - फिर वह चाहे तामसी अंहकार हो य राजसी अंहकार हो या फिर सात्त्विक अंहकार ही क्यों न हो ।

लेखक बतातें हैं कि - साईबाबा के सामर्थ्य के प्रति हेमाडपंत के मन में किंचित् मात्र भी शंका नहीं थी। वो पूरी तरह सहमत भी थे कि साईबाबा ही मेरे राम हैं, ये मेरे साईनाथ ही साक्षात् ईश्‍वर हैं। साईबाबा के प्रति भी उनके मन में तिलमात्र भी संदेह नहीं था। पर दूसरी ओए हेमाडपंत के मन में यह बात भी थी कि मेरे पूर्वजन्मों के संचित के कारण ही, पूर्वजन्म की भक्ति के कारण ही बाबा से मेरी मुलाकात हुई। इस प्रकार के स्वकर्तृत्त्व का अहं हेमाडपंत के मन में सिर उठा रहा था । इस का मतलब हेमाडपंत के मन से अभी तक अहंकार का बीज पूर्णरूप से नष्ट नहीं हुआ था। साईबाबा से मुलाकात होना, उसमें प्रेम का, आनंद का श्रेष्ठ अनुभव प्राप्त होना इसमें कही तो मेरे कर्तृत्व का अहम हिस्सा जुटा है और  यही (अंह)भाव तब तक बना हुआ था और इसी अहंकार के कारण ही उन्होंने बालासाब भाटे जी से वादविवाद का आरंभ किया ।हेमाडपंत स्वयं ही इसके बारे में कहते हैं-
अंग में दुर्घट देहाभिमान। यहीं से वादावादी का जतन।
अहंभाव की यही पहचान। ना हो इसके बगैर वाद कहीं॥

हेमाडपंत हम सब श्रध्दावानों को सचेत कर देतें हैं कि हमारे सब के साथ ही अकसर यही होता है। सद्गुरु का दर्शन होता है, उनसे मुलाकात होती है। सेवा का अवसर भी मिलता है, साईनाथ का अनुभव भी आता है और फिर हम सोचते हैं कि मेरी भक्ति ही इतनी थी इसीलिए यह सब कुछ मुझे प्राप्त हुआ।

‘भगवान की कृपा से ही मुझे सामर्थ्य प्राप्त हुआ, मुझे दिशा मिली और इसीलिए भगवान की कृपा से ही मुझे ये सब कुछ प्राप्त हुआ है। इस में मेरा कर्तृत्व कुछ भी नहीं है।’ इस सत्य से मैं अपने अहंकार के कारण दूर चला जाता हूँ। ‘मेरी भक्ति-सेवा के कारण ही मुझे यह सब कुछ प्राप्त हुआ है’। इस अंहकार के कारण हम उन्मत्त हो जाते हैं और अपने भगवान से दूर हो जाते हैं। इस अहंकार की चरमसीमा है रावणवृत्ति। इसीलिए भक्तों में इस अहंकार को भगवान शेष नहीं रहने देते हैं। सदगुरु की आवश्यकता इसिलिए होती है कि कभी भी हमारे मन में  बसे , पनपने वाले अंहकार रूपी रावण वृत्ति की चरण सीमा पर हम ना पहुच जाए । सद्गुरु का अनुग्रह होने पर जड़मूढ़ भी सभी संकटों को पार कर भवनदी को सुखरूप पार कर जाता है और सद्गुरु का अनुग्रह न होने पर वेदशास्त्रव्युत्पन्न पंडित होने पर भी वह प्रगति नहीं कर सकता ।

संत तुलसीदास विरचिते सुंदरकांड में हनुमानजी सीता मां को प्रभु श्रीराम की महिमा , अपने भगवान अपने गुरु की महिमा बतातें हुए कहतें हैं कि
सुनु माता साखामृग नहिं बल बुध्दि बिसाल । प्रभु प्रताप तें गरूडहि खाई परम रघु ब्याल ।।  
साक्षात हनुमान महाप्रभु भी सदगुरु से , अपने भगवान श्रीराम से कैसे बर्ताव करना है , उनके सामने  अपने अंह भाव को मिटाकर कैसी शरणता स्विकार करनी है यह खुद के आचरण से बता देतें हैं -
सो सब तव प्रताप रघुराई । नाथ न कछु मोरि प्रभुताई ।  
 
बालासाहेब भाटे ने ‘सद्गुरु सिवाय अन्य कोई चारा ही नहीं है, सद्गुरु की ज़रूरत हर किसी को होती ही है-  यह हेमाडपंत से बताई हुई बात को हमें भी अपने मन में थान लेना चाहिए । हमारे साईनाथ भगवान की कृपा से ही हमें  यह सब कुछ प्राप्त हुआ है। यह सब कुछ उसने ही मुझे दिया है’ यही भाव साईनाथ के प्रति मन में धारण करने से अंह रावण का मर्दन हो सकता है ।

1 comment:

  1. Truly newscast pratyaksha is guiding us on a path of bhakta n seva...we all definitely go through these phases of life...writer of this article has correctly pointed out the dilemma in our mind...we ,with our own strength can break the walls of who but sadguru sai can n will definitely break it very easily...but for that to happen we need to say sai is mine truly...
    Then only we will realise what our sadguru does in our life in actual terms...

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