Monday 12 March 2018

गुरुवंचन महादुष्कृती ।पापास नाही तया निष्कृती ।।

दैनिक प्रत्यक्ष में हर रोज एक जाप १२ बार लिखने के लिए दिया जाता है , जिससे उस दिन की हमारी सद्गुरु की या भगवान की प्रार्थना तो होती ही है , पर साथ ही में सद्गुरु के या भगवान के किसी गुण से हमारा परिचय होता है या फिर हमारा उनके साथ कैसा व्यवहार होना चाहिए और कैसा बर्ताव नही  होना चाहिए इस के बारे में भी अनमोल ऐसा मार्गदर्शन प्राप्त होता है ।
दिनांक १ मार्च २०१८ के दिन ऐसी ही गुरु के साथ शिष्य नें कैसा व्यवहार करना नहीं चाहिए , इस के बारे में एक अनमोल ओवी/ जाप आया था, जो देखकर मन में यकायक भगवान  श्रीकृष्णजी और उनके दोस्त सुदामा की कहानी आ गयी ।
वो जाप/ओवी थी -
गुरुवंचन महादुष्कृती ।पापास नाही तया निष्कृती ।।
अर्थ- अपने गुरु से /सद्गुरु  से वंचना करना , यानि उन्हें फसाने की कोई भी  कृति करना , यह सबसे बडी , महा दुष्कृती  है , जिस के पाप विमोचन के लिए कोई भी कृती होई नहीं सकती है , यानि उसे कोई भी विधान या उपाय नहीं बताया गया है ।
यह ओवी श्रीसाईसच्चरित के अध्याय ३८ में १३९ ओवी के रूप में आती है । 

नाना चांदोरकरजी की गलती से बिनीवाले जी को गोदा के तीर पर होनेवाले भगवान दत्तजी का दर्शन नहीं मिल पाता और तब साईनाथ क्रोध धारण करके नाना को रास्ते में क्या हुआ था पूंछतें हैं ।  नाना चांदोरकरजी को अपनी गलती का एहसास हो जाता है और तभी मन में आता है कि मैं झूठ बोलकर मेरे सदगुरु साईनाथ की वंचना करूंगा, उन्हें फसाने जैसा दुष्कृत्य नहीं है, तो भले ही वो क्रोदित हो जाए, मुझे उन्हें सच ही बताना चाहिए और साईनाथ को फसाने का जादा पाप नहीं ढोना चाहिए । 

श्रीसाईसच्चरित के अध्याय २४ में हेमाडपंतजी उपर निर्देशित की हुई भगवान श्रीकृष्ण और उनके दोस्त, मित्र सुदामा की कहानी हमें बतातें हैं।एक बार कृष्ण , उनके बडे भाई बलराम और उनके मित्र सुदामा , अपने गुरु के आश्रम में उनकी सेवा कर रहें थे।तब गुरू पत्नी ने कृष्ण और बलरामजी को जंगल (अरण्य ) में जाकर लकडी लाने की आज्ञा की और बाद में उनके पीछे से सुदामा को भेजा और उसके साथ में जंगल/अरण्य में घूमतें वक्त अगर भूख (क्षुधा) लगें तो खाने के लिए चने दे दिए और यह तीनों के खाने के लिए यह भी सूचित किया था । 
बाद में जंगल में जब कॄष्ण सुदामा को मिलतें हैं , तब बोलतें हैं कि हे दादा (मेरे बडे भाई) मुझे प्यास लगी है ।  उसपर सुदामा के पास गुरु पत्नी  ने दिए हुए चने होने के बावजूद भी वह झूठ बात बोलतें हैं कि आप भूखे (खाली- बिना कुछ खाए ) पेट पर पानी मत पिजीए , चाहिए तो थोडा विश्राम कर लिजीए । पर सुदामा उनके पास गुरु पत्नी ने दिए हुए चने कृष्ण को खाने नहीं देतें ।  कृष्ण सुदामा के कहने पर उनकी गोदी में अपना सर रखकर विश्राम  कर रहें थें, और उनकी आंख लग गई , यह देखकर सुदामा अकेले ही चने खाने लगे  ।

सर्वसाक्षी  भगवान श्रीकृष्ण ने सुदामा को उनकी गलती का एहसास दिलाने के लिए एक बार स्पष्ट रूप से पूछा भी कि ," दादा (बडे भाई) आप क्या खा रहें हो? यह आवाज कैसा है? तब भी  सुदामा उनसे झूठ ही बोलतें है कि यहां पर खाने के लिए क्या हैं ? ठंड से मेरे दांत बज रहें हैं और मुख से विष्णुसहस्त्रनाम का उच्चारण भी स्पष्टता से नहीं कर पा रहा हूं । सुदामा का यह (झूठा) उत्तर सुनकर सर्वसाक्षी , सर्वश्रेष्ठ (परात्पर) कृष्ण भगवान बोलें ," मुझे भी वैसे ही सचमुच का सपना आया कि एक की वस्तु जब दूसरा (बिनापूछे या छुपाकर या फसाकर ) खा रहा है और वो जब पूछता है कि आप क्या खा रहें हो? तब वह दूसरा (फसानेवाला) बोलता मैं क्या खाऊं गा ? यहां क्या है, मिट्टी ! तब पहला बोलता है "तथास्तु यानि वैसे ही हो ।  फिर कृष्ण कहतें हैं कि अरें दादा यह तो सपना ही था ।   आप मुझे छोडकर कभी भी , कुछ भी खा सकतें हों क्या? आप को मैंने आप क्या खा रहें हों , यह सवाल पूछा , वो भी इसी सपने के भ्रम में पडकर ।   

बाद में हेमाडपंतजी स्वंय बता रहें हैं कि बचपन में अगर सुदामा कृष्ण भगवान की लीला को जानते होते , तो उनके हाथों से यह बहुतही बडी गलती (बहुत बडा प्रमाद - अपराध ) नहीं होता था और उसका इतना घोर परिणाम भी उन्हें नहीं भगतना पडता था  ।   वो घोर परिणाम यह था कि सुदामा को बहुत ही भयानक दरिद्रता को भोगना पडा ,क्यों कि स्वंय परमात्मा कृष्ण भगवान जिनके सखा थे, फिर भी सुदामा ने अपने भगवान को फसाने का , उनकी वंचना करने का बहुत बडा पाप किया था , जिसके लिए कोई भी छुटकारा देनेवाला उपाय नहीं हैं ।    ऐसे देखा जाए तो लगेगा कि सुदामा तो नीती में थोडा ही चूंक गए थे, किंतु उससे भी उन्हें संसार में बहुत बडी हानी , नुकसान , सहना पडा था ।    फिर भी भगवान कृष्ण स्वंय परम दयालु, कृपा करनेवाले, क्षमाशील होने की वजह से जब सुदामा ने स्व पत्नी के कष्ट से मिलाए हुए एक मुठी चावल(पोवा) कृष्ण भगवान को बडे प्यार से अर्पण किए , तो भगवान कृष्ण ने प्रसन्न चित्त होकर सुदामा को ऐश्वर्य से तृप्त कर दिया था ।  

ऐसी ही और एक कथा स्मरण हुई जो बताती हैं गुरु की वंचना करना , कितनी महा दुष्कृती होता है ।   भृगुशिष्य़ भगवान  परशुरामजी  और कर्ण की ब्रम्हास्त्र की कथा । (महाभारत शान्ति पर्व में ’राजधर्मानुशासन पर्व ’ में इस कथा का उल्लेख आता है )

 महाभारत के उस पर्वकाल में  वेदव्यास , कौरव और पांडवो के राजगुरु द्रोणाचार्य और भगवान परशुरामजी इन्हीं को सिर्फ ब्रम्हास्त्र विद्या  का ज्ञान था और उन्होंने यह विद्या अपने कुछ खास शिष्यों को ही प्रदान की थी , उनमें से द्रोणाचार्यजी ने यह ब्रम्हास्त्र विद्या  अर्जुन को प्रदान की थी ।  कर्ण का लालन-पालन राधा मा ने किया था और इसी वजह से वह सूतपुत्र कहलाया जाता था , यदपि वह वास्तव में ज्येष्ठ कुंतीपुत्र ही था । (यह सत्य महाभारत के युध्द में कर्ण के मृत्यु तक सिवा कुंती, भगवान कृष्ण और कर्ण के अलावा किसी को पता नहीं था ) ।
द्रोणाचार्य ने कर्ण कि सूत पुत्र होने के कारण से उसे ब्रमास्त्र विद्या सिखाने से मना कर दिया था । अर्जुन को युध्द में  परास्त करने के लिए कर्ण को ब्रमास्त्र विद्या हासिल करना अनिवर्य बन गया था । तब कर्ण ने भगवान परशुराम से ब्रम्हास्त्र विद्या हासिल करने का तय कर लिया था । किंतु परशुरामजीने प्रण किया था कि वे यह ब्रमास्त्र विद्या  सिर्फ ब्राम्हण को ही सिखायेंगें , क्यों कि क्षत्रिय क्रोध और आवेश में आकर ब्रम्हास्त्र विद्या का दुरुपयोग कर सकतें हैं इस बात की संभावना उस वक्त स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही थी ।

तब कर्ण ने भगवान परशुराम के पास जाकर खुद को ब्राम्हण पुत्र बताकर  पहले बहुत  सारे शस्त्रों की विद्या ग्रहण कर ली और बाद मे यह ब्रम्हास्त्र विद्या भी  सीख ली । लेकिन यह उसने बहुत बडे पाप को गले लगाया था क्यों कि आदरणीय, पूज्यनीय गुरु भगवान परशुराम को उसने अंधेरे में रखकर, कपट से , उनकी वंचना कर के, उन्हें फसाकर धोखे से यह विद्या ग्रहण कर ली थी । 

गुरु की वंचना यह महा दुष्कृती बतलाई जाती है, जिसके पाप की कोई दुष्कृती  नहीं होती है । कर्ण ने जो यह महादुष्कृती की थी , उसका परिणाम भी वैसा ही खतरनाक होगा यह बात स्पष्ट थी ।

एक दिन जंगल में परशुरामजी और कर्ण जाते हुए, परशुरामजी विश्राम करने हेतु से कर्ण के गोदी में अपना सिर रखकर सो जातें हैं । तब एक बहुत ही जहरीला कीडा कर्ण की जांघ पर आकर बैठ जाता है और अपने स्वभावानुसार वो कर्ण की जांघ पर डंक मारने लगता है । अपने गुरु की नींद ना टूटे इस डर से कर्ण बहुत ही असामान्य धैर्य जुटाकर बडी ही सहनशीलता से चुपचाप वह कीडे का डंक , उसकी वेदना सह लेता है । किंतु वह कीडा कर्ण के जांघ पर बडा घाव बना लेता है और उससे लगातार खून बहने लगता है । खून की धारा बहने अगती है और खून के गीले स्पर्श मात्र से भगवान परशुराजी की नींद खुल जाती है । कर्ण की असामान्य सहनशीलता देखकर भगवान परशुराम जी तुरंतही जान जातें हैं कि कर्ण ब्राम्हण हो ही नहीं सकता क्यों कि किसी ब्राम्हण में इअतनी सहनशीलता हो ही नहीं सकती । इसका मतलब स्पष्ट था कि कर्ण ने अपने गुरु भगवान परशुराम की वंचना की है, उन्हें फंसाकर , कपट से , धोखे से उनसे ब्रम्हास्त्र विद्या ग्रहण कर ली है । भगवान परशुराम तुरंत ही जान जातें हैं कि कर्ण जरूर कोई क्षत्रिय ही हो सकता है । भगवान परशुराम अत्यंत क्रोधित हो उठतें हैं और कर्ण से सचाई पूंछतें हैं । कर्ण सच तो बता देता है कि वह ब्राम्हण पुत्र नहीं हैं । तब आग बबूला हुए भगवान परशुराम, क्रोधित होकर, गुरु से वंचना करने की महादुष्कृती करनेका दु:साहस करनेवाले  कर्ण को उसी समय शाप भी दें देतें हैं कि कर्ण ने भगवान परशुराम  जो भी विद्या सीखी है वह झूठ बोलकर, उनकी वंचना करके , उन्हें फंसाकर , धोखे सी सीखी है इसलिए जब भी उसे (कर्ण को ) इस ब्रमास्त्र विद्या की सबसे ज्यादा आवश्यकता होगी, तभी वह उसे भूल जाएगा , इतना ही नहीं तो और उस वक्त कोई भी अन्य दिव्यास्त्र का उपयोग भी वह (कर्ण ) नहीं कर पाएगा ।    
                                                                  
महाभारत के शांति पर्व में  इसी बात को स्पष्ट करने वाला एक श्लोक भी है -   

ब्राह्मघ्ने च सुरापे च चौरे भग्नव्रते तथा।
निष्कृतिर्विहिता राजन् कृतघ्ने नास्ति निष्कृति:।।

हे राजन्! ब्राह्म हत्यारे, शराबी, चोर तथा व्रत तोड़ने वाले के लिए शास्त्र में प्रायश्चित का विधान है, परन्तु कृतघ्न के उद्धार का कोई उपाय नहीं बताया गया है।

                                                                                    -वेदव्यास (महाभारत, शान्ति पर्व, 172/25)

शास्त्र में यह बताया जाता है कि - कृतघ्नता एक महापाप !!

शास्त्रों में यदि किसी पाप के प्रायश्चित का विधान नहीं है तो वो एक मात्र पाप है कृतघ्नता । किसी के किये बड़े से बड़े उपकार को न मानना उसके साथ विश्वास घात करना इसे ही कृतघ्नता कहा जाता है ' कृतं परोपकारं हन्तीति कृतघ्न:' । प्रत्येक मनुष्य को कृतज्ञ होना चाहिए यही मनुष्य का आभूषण है । 

कृतज्ञ होना यानि आदिमाता दुर्गा के चरणों में अंबज्ञ रहना , सदा के लिए । इसी लिए हमें अपने गुरु के साथ सदैव कृतज्ञ भाव से, अंबज्ञही रहना है । सर्वसाक्षी गुरु से, परात्पर गुरु से वंचना करना यानि अपने पैर पर अपने ही हाथों कुल्हाडी मारना, खुद कि लिए मौत  का कुंआ खोदने समान ही है, इस बात का सदैव स्मरण रखना चाहिए ।  
 

3 comments:

  1. Suuupppeerrbb
    Zakkaaass ..
    Ambadnya 🙏
    Naathsamvidh 🙏

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  2. Ambadnya Naathsamvidh...if we don't remember the help of other people in society in our bad times we are doing a sin...but if the same is done with sadguru then it's a blunder..it's unforgivable sin we commit...hence we should always remain ambadnya towards lotus fees of mothi aai n sadguru...

    मोठ्या आईचे चरण घट्ट धरून ठेवले की चांगल्या गोष्टी आपल्याला कधीही सोडून जात नाहीत...

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  3. Very well written. I remembered one line after reading this -
    'गुरौ रुष्टे न कश्चनस्त्राता'.
    Ambadnya. Naathsamvidh.

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