Wednesday 5 April 2017

मेरे साई को दिल में उतारने का आसान उपाय - साईकथा बारंबार सुनना !



                                                      ॐ कृपासिंधु श्रीसाईनाथाय नम:


तस्वीर तेरी दिल में जिस दिन से उतारी है
फिरूँ तुझे संग लेके , नये नये रंग लेके
सपनों की महफिले में 
१९६१ साल का "माया" पिक्चर का यह गाना बहुत ही मशहूर हुआ था , जिसके बोल मजरूह सुल्तानपुरीजी ने लिखे थे और सलीलदा के संगीत का अनोखा जादू भरके उसमें मानों चार चांद जुड गये थे । देखिए यह फिल्मी गीत हमें कितनी आसानी से प्यार की परिभाषा सिखाता हैं । आम जिंदगी में हमें जो चीज भा जाती है  या जो इंसान से हमें प्यार हो जाता है उसे हम बारंबार याद करतें हैं , उसकी तस्वीर मानो दिल में उतार लेंतें हैं , चाहे वो नन्हा सा प्यारा सा बच्चा हो या फिर नौजवान युवक हो या युवती हो या फिर कोई दिल को छू जानेवाली किताब हो या फिर फिल्म हो या फिर कोई मन को लुभानेवाला फिल्मी गाना हो । जो चीज हमें अच्छी लगती हैं , या भा जाती हैं , उस चीज को या इंसान को हम बार बार याद करते रहतें हैं ।
ये हो गयी हमें अच्छी लगनेवाली बात के बारे में पर कभी कभी ना चाहनेवाली बात भी हमें याद रखने के लिए बल जोरीसे ना चाहते हुए भी बार बार करनी पडती है । स्कूल के दिनों में कोई ना कोई बिषय से हमारी दुश्मनी रहती है , जिसे हमें ना चाहते हुए भी पढना पडता था जैसे की मॅथ्स के फॉर्म्युले हो या शास्त्र के नियम हो या इतिहास के साल हो, हमें जो चीज पसंद नहीं उसे भी बारंबार याद करके ही हमारी याददाश्त में वो तस्वीर बन जाती है ।

इससे ये बात तो हम समझ ही जातें हैं कि चाही या अनचाही बात की तस्वीर दिल में उतारने के लिए हमें हमेशा वो  चीज बारंबार करनी पडती है । अभी हेमाडपंतजी तो हमें पहले ही अध्याय में बतातें हैं कि मेरे साई से इतना प्यार किजीए कि हर जगह मुझे बस्स मेरे साईबाबा ही नजर आने चाहिए । तस्वीर तेरी दिल में जिस दिन से उतारी है, फिरूँ तुझे संग लेके , नये नये रंग लेके इसका आसान सा अर्थ मैंने यह जाना ।
हेमाडपंतजी कहतें हैं कि-
ज्या ज्या दुज्या तुज उपमावें । तो तो आहेस तूंचि स्वभावें । 
जें जें काहीं दृष्टीस पडावें । तें तें नटावें त्वां स्वयें ।। ४९ ।। 
                                                                                       - अध्याय १ , श्रीसाईसच्चरित

यानि कि मैं किसी भी चीज की उपमा तुम्हें देने की बात सोचूं भी तो हे मेरे साईनाथ तुजमें तो वो गुण पूरा का पूरा पहले से ही बसता है, और मैं जो भी देखू तो मुझे वहां बस तू ही तू खुद नजर आता है।
आहे दूसरी ओवी में भी हेमाडपंतजी लिखतें हैं कि
साईंनी मज कृपा करून । अनुग्रहिले जैंपासून । 
तयांचेंचि मज अहर्निश चिंतन । भवभयकृतंन तेणेनि ।। ७८ ।।
                                                                                              - अध्याय १ , श्रीसाईसच्चरित

याने हेमाडपंतजी ने जिस दिन साईं की धूलभेंट ली , उसी दिन से अपने साई कीं तस्वीर अपने दिल में उतार ली क्यों कि वे बारंबार अपने साईबाबा का ही चिंतन करने लगे थे । 

यह बात से पता चलता है कि अगर मुझे साईबाबा को अपना है, उन्हें मेरा अपना बनाना है , तो हमें हमारे साईबाबा को बार बार याद करना हैं , निहारना हैं , बारंबार उनकी कथा को सुनना है, पढना है ।

कोई कहेगा मैंने एक बार तो श्रीसाईसच्चरित पढ लिया, अब बार बार क्या पढना ? तो इस के बारे में मुझे याद आतें हैं मेरे साई के ही शब्द - स्वयं बाबा ने ही २१ वे अध्याय में एक प्रांत अधिकारी से कहा है, ‘आप्पा ने जो बताया है उसे पूर्ण रूप से आचरण में उतारने से ही भला होगा।’ और वो कैसे होगा  तो -
‘‘ग्रंथ करना है पहले श्रवण।
उसी को फ़िर करना है मनन।
फिर पारायण आवर्तन।
और करें निदिध्यासन।

पढ़ना ही का़फ़ी नहीं है।
ज़रूरी है उसे आचरण में लाना।’’

यह बारंबार ग्रंथ पडने से अपने आप ही मेरे साईबाबा की तस्वीर मेरे दिल में उतरने लगती है , बिना कोई कष्ट उठाए 
‘‘ग्रंथ करना है पहले श्रवण।
उसी को फ़िर करना है मनन।
फिर पारायण आवर्तन।
और करें निदिध्यासन।

पढ़ना ही का़फ़ी नहीं है।
ज़रूरी है उसे आचरण में लाना।’’
यह इतनी आसानी से सच में होता है क्या , इस बारे में मन में सवाल आया , तभी साईबाबा की कृपा से एक लेख पढने में आया जिस में  लेखक महाशय ने  मानव के मन को कोई भी चीज बारंबार क्यों करनी चाहिए इस बात को बहुत ही अनोखी ढंग से पेश किया था -
http://www.newscast-pratyaksha.com/hindi/shree-sai-satcharitra-adhyay2-part14/

लेखक महाशय जी ने बताया-
अकसर हमसे यह कहा जाता है कि परमात्मा के चरित्र का, संतों के चरित्र का बारंबार पठन, मनन एवं चिंतन करना चाहिए। यहाँ पर बारंबार यह शब्द बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यह बारंबार की जाने वाली क्रिया मन के लिए अति आवश्यक है। क्योंकि कोई भी बात मन को बारंबार बताने पर ही वह मन में गहराई तक उतर जाती है, अन्तर्मन में दृढ़ हो जाती है और इसके पश्‍चात् ही मन उसके अनुसार क्रिया कर सकता है।

बारंबार क्रिया करना यानि सावधानी बरतने की कोशिश करना ।सावधानी का अर्थ है- दक्षता,और यह दक्षता अकसर बुद्धि के पास होती है परन्तु मन के पास नहीं होती। चंचल रहनेवाले इस मन को बुद्धि बारंबार सचेत करती रहती है और यह मन एक शरारती बच्चे की तरह बुद्धि की बात बहुत कम सुनता है।
हमें सोचना चाहिए कि मैं खुद को साईबाबा का भक्त कहता हूं , लेकिन क्या साईबाबा को सही मायने में मैंने अपनाया हैं क्या ? बाकी सब चींजे मेरी होतीं हैं जैसे की मेरा पती , मेरी पत्नी ,मेरे बच्चे , मेरे मां-बाप, मेरी गाडी , मेरी सायकिल, मेरी कार,मेरा बंगला - सबकुछ मेरा है , पर क्या साई ’मेरा’ है? सच में साईबाबा मेरी जिंदगी में है भी या है ही नहीं ? सच देखा जाए तो साईबाबा अपने असीम प्यार से अपनी करूणा, अपनी क्षमा की वजह से मेरे जीवन में प्रवेश तो कर चुके हैं ही । पर मेरे मन में , दिल-दिमाग में बैठी कुमती रूप कैकयी और संशय रूप से रहनेवाली मंथरा के कारण ही मैं खुद स्वंय ही मेरे साईराम को वनवास भेजता हूं , मेरे जीवन में साईनाथ मेरे अपने बनकर ’कर्ता’ बनकर आना चाहतें हैं पर मैं ही उन्हें साक्षी भाव में बैथा देता हूं ।

मैं कहीं जाना चाहता हूं और आगे का खतरा देखकर मेरे साईबाबा मुझे जाने देना नहीं चाहतें हैं , मेरे रास्ते में वे रूकावट डालतें हैं कभी स्पष्ट रूप से तो कभी अस्पष्ट तरीके से - पर मेरा अंहकार मुझे मेरे साईबाबा की बात मानने नहीं देता - जैसे कभी मैं साईबाबा की बात अनसुनी कहकर तात्या कोते पाटील की तरह साईबाबा ने मना करने पर भी बाजार चला जाता हूं या कभी साईबाबा ने एक जगह रूकने की बात बताने पर भी अनसुनी कर के मैं आमीर शक्कर बन के बाबा से छुपाकर चला जाता हूं । इससे मैं  साईबाबा को नहीं बल्कि अपने आप को धोखा दे रहा हूं ।
जब मैं अपने जीवने में साईबाबा को "कर्ता" बनाता हूं तो मेरा "मैं" मेरे साईं की कृपा से मिट्टी में मिल जाता है और मेरे साईनाथ मेरी झोली आनंद , सुख , शांती , तृप्ती, समाधान से भर देतें हैं ।

मनुष्य की विवेकबुद्धि तो अच्छी होती है, लेकिन उसका मन चंचल होता है।जब कभी भी मन बुद्धि की बात सुनता है तब मनुष्य का फ़ायदा ही होता है। इसीलिए यह सावधानता विशेष तौर पर मन को ही सिखाना होता है। जब तक यह मन थोड़ी-बहुत गलती करता है वहाँ तक तो ठीक है, परन्तु जब वह अपनी मर्यादा की सीमा को तोड़ वाहियात हरकतें करने लगता है तब वह उस मनुष्य का आत्मघात करता है और इसीलिए सावधानी बरतना अति आवश्यक होता है।

साईबाबा की कथा बारंबार सुनने से मेरे साईबाबा को मैं अपने जीवन में "कर्ता" बनाता हूं और फिर साईबाबा मुझे सावधानी बरतने सिखा देतें हैं - जैसे कि काका महाजनी जब साईबाबा से मिलने और कृष्ण जन्म साईबाबा के साथ मनाने का सोचकर आये थे तब साईबाबा ने उन्हें तुरत ही उसी दिन वापिस लोट जाने को कहा था और कृष्ण जन्म भी मनाने के लिए रूकने नहीं दिया था । अभी काका महाजनीजी ने साईबाबा की बात सावधानी से सुनी इसिलिए उनके नौकरी में आनेवाली मुसीबत से वो बच गए । अगर महाजनी के दिल में साईबाबा की तस्वीर ना उतर गयी होती थी तो उन्हें अपनी नौकरी पर मुसीबत आ सकतीं थी ।

हेमाडपंतजी ने खुद अपनी जिंदगी में अपने साईबाबा की  तस्वीर पहली भेंट से ही उतार दी थी , साईबाबा का शब्द बारंबार सुनने  की आदत अपने आप को डाल रखी थी इसिलिए होली के दिन सपने में संन्यासी रूप में दर्शन देकर बात बताने पर भी हेमाडपंतजी घर तस्वीर रूप में पधारे साईबाबा को अपने घर में ही नही, बल्कि अपने दिल के सिंहासन पर बिठा सकें , जहां पर अच्छे भक्त होने के बावजूद अंह भाव के घेरे में पडकर, कुमती कैकयी और संशयरूपी मंथरा के चंगुल में फंसकर देव मामलेदार साईबाबा को अपने घर पर खुद ही न्यौता देकर आए हुए साईबाबा को पहचान नहीं पाए थे ।

चलिए सब बिचार छोडकर सिर्फ अपने साई की तस्वीर अपने दिल में उतारने की कोशिश करतें हैं क्यों कि यही मेरे साईबाबा की चाहत हैं ।

ॐ साईराम

3 comments:

  1. Beautiful writeup with beautiful examples related to Shrisaisatccharitra, maintained flow so aptly that while reading the writeup, the objective and purpose of the writeup fulfils. Saibaba dilme basate hai..Thnx

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  2. Tasbir se bigdi hui tadbir bana le
    Apnepe bharosa hai to ek dav lagale.
    only sai bhakta can have that confidence to bet as that confidence is instilled by sai himself which can never convert into over confidence.
    For that only we need to look upto ask with pure love , he looks after us always.
    thanks a ton newscast pratyaksha for guiding us.. newscast pratyaksha indeed has been excellent platform for all of us ask bhaktas to learn n progress on the path of bhakti.

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प्रत्यक्ष मित्र - Pratyaksha Mitra

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