साईनाथ
से प्रत्यक्ष संवाद करने के लिए मन में भोलाभाव होना, अपने मन में पारदर्शकता होना अती आवश्यक है। जब मैं अपने मैं
को मेरे साईनाथ के चरणों मे सौंपने की सोचता
हू और मेरे मन में यह बात ठान लेता हू तब साईनाथ भी मेरा भार उठाने खुशी खुशी तैयार
हो जातें हैं । साईनाथ मेरा भला-बुरा मुझसे भी अधिक अच्छी तरह से जानते हैं क्यों कि
वोही सर्वज्ञ है, वो ही त्रिकालदर्शी भी है । मेरे लिए कोई चीज
अगर अनुचित है तो मुझसे पहले मेरे साईनाथ जानतें हैं ।
तात्या
कोते पाटील की मां बायजाबाई साईबाबा को अपना पुत्र मानकर ही प्रेम करती थी । तात्या साईनाथ को मामा कहकर पुकारतें थे और साईनाथ
भी अपने भांजे का बहुत खयाल रखतें थे और प्यार भी करतें थे । तात्या पाटील एक दिन बाजार
जाने निकलतें हैं और साईबाबा से अनुमती लेने जाते है । बाबा उन्हें जाने से रोकना चाहतें हैं पर तात्या
को तो जाने की जल्दी पडी रहती है । बाबा के मना करने पर भी तात्या मानते नही और जल्दबाजी
में निकल पडतें हैं और कितना बडा हादसा हो जाता है , फिर भी साईनाथ उनका बाल तक बां का नही होने देतें । तात्या को आगे चलकर क्या
अनहोनी घटित होनेवाली है इसकी जरा सी भी नहीं पडती फिर भी बाबा की कृपा उन्हें बचा
लेती है । यह बात स्पष्ट करती है कि तात्या को उनके लिए उस वक्त उचित क्या
? इस बात का पता चल नही रहा
था ।
साईनाथ
के दर्शन पाने हेतु नाशिक के प्रख्यात धुमाल वकील आते हैं तब साईबाबा उन्हें शिरडी
से बाहर
निफाड गांव जाकर तय हुए दिन कोर्ट का मुकदमा लडने नहीं देते , और बाद में भी काफी दिन तक अपने पास ही रोख लेतें है शिरडी में । धुमाल वकील
साईबाबा की अनुमती के बिना जाना उचित नहीं समझतें और बाद में पता चलता है के जज साहब
कोर्ट में नही आ सकें थे । कोर्ट ने दी हुई तीन तारीख भी निकल जाती हैं और धुमाल वकील
बाबा के रोकने पर शिरडी ही रूक जातें हैं किंतु
अंतिम निर्णय में उनके मुअकील की ही जय होती है
। इससे साईनाथ अपने बच्चों का, भक्तों का सदैव कल्याण
ही करतें हैं , उन्हें विपदाओं से चार हाथ दूर ही रखतें हैं यह
समझ में आता है ।
श्रीसाईसच्चरित
में ऐसे कई उदाहरण हमें सिखातें हैं कि साईनाथ को हम अपना भार सौंप देतें हैं तो हमारा
बेडा पार हो ही जाता है , भले हमें हमारे लिए क्या उचित है
क्या अनुचित है इसकी पहचान ना भी हो । किंतु साईनाथ के प्रति हमारे मन में भोला भाव
होना अत्यावश्यक होता है , तभी हम अपने परमात्मा से, सदगुरु से संवाद कर सकतें हैं । धुमाल
वकील के मन में साईनाथ ने मना करने पर भी शंका- कुशंका नहीम पैदा होती । मेरे साईनाथ ने मुझे शिरडी में अपने पास रोक के
रखा , इस में मेरी ही भलाई होगी, मेरे साईबाबा
कभी भी मेरा अहित नही करेंगे, इस बात का पूरा भरोसा उन्हें था
यानि साईबाबा के प्रति उनके मन में शुध्द भोला भाव ही था , इसिलिए
द्वारकामाई की सिडी बाबा ने उन्हें चढने दी और उनका भला किया । यहां पर धुमाल वकील
ने साईबाबा से संवाद कर लिया था । साईनाथ पर पूरा भरोसा रखना , उनके चरणों में
अपना सर रखना और उनके हाथों में अपनी जीवन की बागडोर संभालने देना , उनके हाथॊ में अपना भार सौंप देना इसी में मेरी सब भलाई है यह राज धुमाल वकील
जान गए थे और उनके साईनाथ ने भी उनका यह विश्वास, भरोसा टूट्ने
नही दिया ।
अगर
हमारे मन में अगर झूठा अंहकार हो या कोई विकल्प हो या कोई शंका हो तो हमारे इस परमात्मा से, हमारे साईनाथ से हम संवाद नहीं कर
सकतें । संवाद करना तो दूर की बात फिर तो साईबाबा
द्वारकामाई की सीढी भी चढने नहीं देतें ,
दर्शन नहीं देतें । हाजी की कथा हमें दिखाती है कि झूठे अंहकार और गरूर
से चूर हाजी के मन में भोला पन नहीं था, उसे मका-मदिना की यात्रा
करने का अंहकार था तो साईबाबा ने पूरे नौ महिने तक उसे द्वारका माई में पैर भी रखने नही दिया
था, दर्शन नहीं दिया था ।
साईबाबा
से अगर मुझे संवाद करना है तो मेरा मन साफ होना चाहिए, मेरे मन में भोला भाव होना चाहिए । इसके बारे
में एक लेख पढने में आया -
यहां
पर लेखक महोदयजी ने बहुत सरलता से , आसानी से यह बात समझायी है । वे शामा का आचरित हमें दिखातें हैं ।
माधवराव
देशपांडे अर्थात बाबा का लाड़ला शामा। शामा दिनभर बाबा की सेवा तो करते ही थे पर इसके
साथ ही वे आने-जाने वाले भक्तों की सेवा भी बड़े अपनेपन के साथ करते थे। बाबा से प्रत्यक्षरुप
में कोई भी बात पूछने का साहस आम तौर पर कोई भी नहीं कर पाता था। माधवराव के कान पर
अपनी बात डालकर भक्त अपनी तकलीफ़े आदि बाबा तक पहुँचाते थे। माधवराव भी बिना किसी स्वार्थ के यह काम बड़ी ही आत्मीयता के
साथ करते थे ।
माधवराव
बिलकुल सीधे -साधे, भोले भाले भक्त थे । इसीलिए अंदर
से कुछ और बाहर से कुछ और ऐसा उनका स्वभाव बिलकुल नहीं था। उनके आचरण में पारदर्शकता
नजर आती थी । बाबा पर उनकी अनन्य निष्ठा थी ।बाबा के चरणों पर अपरंपार प्रेम था एवं
बाबाके लिए निरंतर सेवा करना यही उनका जीवन हेतू था । इन्हीं गुणों से परिपूर्ण ये
भक्त अत्यन्त शुद्ध एवं स्वच्छ अन्त:करण के थे। इसी कारण वे ‘माध्यम’ बने, बाबा एवं भक्तों के बीच होने वाले संवाद के।
शामा
के इस गुण को हमें ध्यान में रखकर अपने जीवन में साईबाबा से संवाद करने सिखना चाहिए
।
हमारे
परमात्मा के साथ संवाद होने के लिए इसी प्रकार की पारदर्शकता ज़रूरी है यह बात हमें
माधवराव से सीखनी चाहिए। उस समय शिरडी में जैसे यह बात निश्चित होती थी कि शामराव
के माध्यम से बाबा के साथ संवाद साध्य करना है। वापस लौटने की आज्ञा लेनी हो आदि। शामा
इस भोली भाविकता का आदर्श था और इसीलिए बाबा को उनकी चाहत थी। यही भोलीभावना भगवान
को अधिक अच्छी लगती है। और यही भोलापन भगवान के साथ प्रत्यक्ष रूप में संवाद साध्य
करने का माध्यम होता है। इसी भोली भावना के कारण ही माधवराव बाबा के साथ सरलता से पेश
आते थे कारण उनके अंदर कोई भी परदा नहीं था।
हेमाड्पंतजी
हमे बतलातें हैं कि द्वारकामाई की सीढ़ी केवल भोला भाविक ही चढ़ सकता है। अन्य कोई भी
नहीं। हम देखते हैं कि कुछ लोगों को बाबा द्वारकामाई की सीढ़ी भी नहीं चढ़ने देते। जिनके
पास जरा सा भी बिलकुल अत्यल्प भी भोलाभाव नहीं होगा ऐसा घमंडी इन्सान भला कैसे द्वारकामाई
की सीढ़ी चढ़ेगा? मन में शंका, विकल्प आदि कुछ भी हो, साईं की परीक्षा लेने कोई भी आये
परन्तु उसके मन में भोलाभाव है इसलिए बाबा उसे द्वारकामाई में प्रवेश करने देते हैं।
जैसे कि काका महाजनी जहां काम करतें थे उसका मालिक - धरमसी , मन में साईनाथ की परीक्षा लेने की ठानकर आया था फिर भी साईनाथ ने उसे द्वारका
माई में पैर रखने दिया , इअतना ही नही उसके मन की कुशंकाओं का
भी समाधान किया । वही मेघा की कथा में जब पहली बार वो शिरडी में आता है तो मन में विकल्प
लेकर कि साईनाथ तो मुस्लिम है , मैं उन्हें अपना गुरु कैसे मान
लूं , तो साईबाबा उसे द्वारकामाई में आने से रोक देतें हैं ।
‘भोला-भाव’
यही द्वारकामाई की सीढ़ी है। हेमाडपंत बाबासे अनुमती माँगनेवाली कथा में सर्वप्रथम
हमें इसी सत्य को उजागर करके दिखाते हैं। हेमाडपंत कहते हैं कि बाबा से प्रत्यक्षरूप
में पूछने का साहस मुझमें नहीं था कारण यह मुझसे होगा या नहीं, मैं कहीं ‘छोटा मुँह बड़ी बात तो नहीं कर रहा
हूँ ना? इस तरह के विचार उनके मन में उठ रहे थे। इसके अलावा अपनी
योग्यता के प्रतिकूल बाबा से यह पुछना उचित होगा क्या? ऐसा भी
उन्होंने सोचा होगा। वे अपना स्थान अच्छी तरह से जानते थे और यही सबसे महत्त्वपूर्ण
होता है। इसिलिए हेमाडपंत हमे बता सकतें हैं कि -
अपने
‘मैं’ को अर्पित करते ही साई-चरणों में। सौख्य
पाओगे तुम अपरंपार।
संपूर्णत:
सुखमय हो जायेगा तुम्हारा संसार। अहंकार
दूर हो जायेगा॥
अपने
‘मैं’ को साईं के चरणों में अर्पित करने पर साई की प्रेरणा जीवन में प्रवाहित होती
है और इसी कारण हमारा हर एक निर्णय अचूक साबित होता है।
भक्त
को हमेशा अपने मन में साई के प्रति भोला भाव ही रखना चाहिए और बस ये कहना है - सब सौंप
दिया है जीवन का भार तुम्हारे हाथों में अब हार मिले या जीत मिलें उपहार तुम्हारे हाथो
में।और ऐसे शरणागत को साईनाथ कभी मायूस नहीं करतें , खाली हाथ तो कभी नहीं लौटातें क्यों कि उन्ही
का यह वचन है कि
शरण
मज आला आणि वाया गेला दाखवा दाखवा ऐसा कोणी ।
जब
हम अपना भार साई बाबा के हाथों मे सौंप देतें हैं तब उस हर एक निर्णय को अब ‘मैं’ नहीं
बल्कि मेरे साई ही निश्चित करते रहते हैं। जिस तरह एक माँ अपने बच्चे के लिए सर्वोचित
एवं सर्वोत्तम (APT) का ही चुनाव करती है,
उसी तरह यह साईरूपी माता भी अपने बच्चे के लिए यानी मेरे लिए उचित का
चुनाव करती रहती है। इसीलिए हमें अपने इस ‘मैं’ को बाबा के चरणों में ही अर्पित कर
देना चाहिए। इसी में हमारा हित है, इससे हमें अपरंपार सौख्य प्राप्त
होकर हमारा सारा जीवन ही सुखमय हो जाता है। सारा जीवन अर्थात ऐहिक जीवन के अन्तर्गत
मन एवं बुद्धि के साथ-साथ पारलौकिक जीवन भी।
हेमाडपंत
ने अपने इस ‘मैं’ को कब का श्रीसाई चरणों में अर्पित कर दिया था और इसी कारण साईप्रेरणा
उनके जीवन में प्रवाहित हुई। साईप्रेरणा से ही साईसच्चरित विरचना की इच्छा उनके मन
में जागृत हुई। जब सद्गुरु से संबंधित ऐसा
कोई कार्य करने की इच्छा मेरे मन में प्रकट होती है, तब इसके लिए प्रत्यक्ष रूप में उनकी अनुमती प्राप्त करना बहुत जरूरी है। यह
साईनाथ का चरित्र है इसीलिए उनका अनुमोदन लेना बहुत ज़रूरी है यह बात हेमाडपंत भली-भाँति
जानते हैं और वे हमें यही महत्त्वपूर्ण गुण सिखाते हैं कि कार्य चाहे कितना भी अच्छा
और पवित्र क्यों न हो पर मुझे बाबा की प्रत्यक्षरुप में अनुमती लेकर ही उसे आरंभ करना
है। बाबा के देहधारी होने पर उनसे प्रत्यक्षरुप में मिलकर उनके मुखसे अनुमति प्राप्त
कर यह कार्य को आरंभ करना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
मेरे
मन में है इसलिए वह पूरा होगा ही, ऐसा न
होकर हमारा विश्वास यह होना चाहिए कि बाबा के मुख से निकलेगा तो ही वह कार्य पूरा
होगा, सुसंपूर्ण होगा यही इसके पिछे छिपा हुआ मर्म है। साईसच्चरित
लिखना है यह मेरा संकल्प न होकर बाबा का ही संकल्प है यह बाबा के प्रत्यक्षरुप में
कहने से ही स्पष्ट होगा। और बाबा का ही संकल्प पूर्ण सत्य है, यह बात हेमाडपंत अच्छी तरह जानते हैं। इसीलिए हेमाडपंत निश्चय करते हैं कि
इस कार्य के लिए बाबा की अनुमती प्राप्त करना बहुत ज़रूरी है। इसके बिना मैं मेरा कोई
भी कार्य शुरु नहीं करूंगा । मुझे कुछ भी स्वेच्छा से , अपने
मन से न करते हुए बाबा की इच्छा से ही करना है। हेमाडपंत का यह विशेष गुण हमारे लिए
बहुत महत्त्व रखता है। बाबा जो भूमिका मुझे देंगे उसे मैं पूरी ईमानदारी के साथ निभाऊँगा,
किसी अन्य की भूमिका कितनी भी अच्छी क्यों न हो परन्तु मैं उसे करने
की कोशिश नहीं करूँगा कारण मेरे साईनाथ ही जानते हैं कि मेरे लिए उचित भूमिका कौन सी
है?
हमारे
परमात्मा के साथ संवाद होने के लिए इसी प्रकार की पारदर्शकता ज़रूरी है यह बात हमें
माधवराव से सीखनी चाहिए। उस समय शिरडी में जैसे यह बात निश्चित होती थी कि शामराव
के माध्यम से बाबा के साथ संवाद साध्य करना है। वापस लौटने की आज्ञा लेनी हो आदि। शामा
इस भोली भाविकता का आदर्श था और इसीलिए बाबा को उनकी चाहत थी। यही भोलीभावना भगवान
को अधिक अच्छी लगती है। और यही भोलापन भगवान के साथ प्रत्यक्ष रूप में संवाद साध्य
करने का माध्यम होता है। इसी भोली भावना के कारण ही माधवराव बाबा के साथ सरलता से पेश
आते थे कारण उनके अंदर कोई भी परदा नहीं था। द्वारकामाई की सीढ़ी केवल भोला भाविक ही
चढ़ सकता है। अन्य कोई भी नहीं। हम देखते हैं कि कुछ लोगों को बाबा द्वारकामाई की सीढ़ी
भी नहीं चढ़ने देते। जिनके पास जरा सा भी बिलकुल अत्यल्प भी भोलाभाव नहीं होगा ऐसा घमंडी
इन्सान भला कैसे द्वारकामाई की सीढ़ी चढ़ेगा? मन में शंका, विकल्प आदि कुछ भी हो, साईं की परीक्षा लेने कोई भी आये परन्तु उसके मन में भोलाभाव है इसलिए बाबा
उसे द्वारकामाई में प्रवेश करने देते हैं। ‘भोला-भाव’ यही द्वारकामाईची की सीढ़ी है।
हेमाडपंत बाबासे अनुमती माँगनेवाली कथा में सर्वप्रथम हमें इसी सत्य को उजागर करके
दिखाते हैं। हेमाडपंत कहते हैं कि बाबा से प्रत्यक्षरूप में पूछने का साहस मुझमें नहीं
था कारण यह मुझसे होगा या नहीं, मैं कहीं ‘छोटा मुँह बड़ी बात
तो नहीं कर रहा हूँ ना? इस तरह के विचार उनके मन में उठ रहे थे।
इसके अलावा अपनी योग्यता के प्रतिकूल बाबा से यह पुछना उचित होगा क्या? ऐसा भी उन्होंने सोचा होगा। वे अपना स्थान अच्छी तरह से जानते थे और यही सबसे
महत्त्वपूर्ण होता है।
ढूँढ
रहा था योग्य अवसर । बाबा से पूछने का न था साहस।
आ गए
माधवराव ‘सीढ़ी’ पर। उन्हें बता दिया मन का भाव॥
यहाँ
पर हेमाडपंत बड़े ही सुंदर तरीके से ‘माधवराव आ पहुँचे सीढ़ी पर’ यह पंक्ति लिखते हैं।
यहाँ पार स्थूल रूप में वे द्वारकामाई के सीढ़ी तक आ पहुँचे यह तो एक अर्थ है ही, परन्तु इसके साथ ही ‘माध्यम’ बने यह अर्थ भी
निकलता है।
भक्त
और भगवान के बीच किसी एजंट व्यक्ति की ज़रूरत नहीं होती। यहाँ पर माधवराव यह रूपक है
भक्त के मन में रहने वाले भोले भाव का।
सीढ़ी
जिस तरह से दो मंजिलों को जोड़ने का माध्यम होती है, उसी तरह भक्त एवं भगवान को जोड़ने का काम करने वाला ‘भोला-भाव’ यही द्वारकामाई
की सीढ़ी है। हम सभी को द्वारकामाई में जाकर दर्शन लेने की, बाबा
के साथ प्रत्यक्ष रूप में संवाद करने की बहुत इच्छा होती है। यह सब हो यही तो साईनाथ
की भी इच्छा होती है, पर द्वारकामाई की सीढ़ी चढ़ने के लिए हमारे
अन्त:करण में भोले भाव का होना अत्यन्त महत्त्चपूर्ण है। साईनाथ का भोला-भाविक ही द्वारकामाई
की सीढ़ी चढ़ सकता है और साईनाथ के साथ प्रत्यक्ष रूप में संवाद कर सकता है। यही तत्त्व
हेमाडपंत यहाँ पर हमें दिखला देतें हैं ।
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